।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि
पौष शुक्ल द्वितीया, वि.सं.२०७२, सोमवार
प्रतिपदा तिथी क्षय

खण्डन-मण्डनसे हानि


(गत ब्लॉगसे आगेका)
एक मार्मिक बात है कि आपके इष्टका खण्डन होता है तो वह आपके मण्डन करनेसे नहीं मिटेगा । आप मण्डन करेंगे तो दूसरा और तेजीसे खण्डन करेगा । मण्डन करनेमें एक मार्मिक बात है कि आप अपने इष्टको कमजोर मानते हैं । इष्ट ऐसा कमजोर नहीं है कि उसको हमारी सहायतासे कोई बल मिलेगा । हम अपने इष्टका जितना पक्ष लेते हैं, उतना ही हम अपने इष्टको कमजोर मानते हैं । हम जितना ही अपने इष्टको दूसरोंपर लादना चाहते हैं, दूसरोंको मनवाना चाहते हैं, इष्टपर हमारी भक्ति उतनी ही कम होती है । आपको दीखे या न दीखे, पर है ऐसी ही बात ।

हमारेमें पहली कमी तो यह है कि हम अपनी बड़ाई चाहते हैं । हमसे इष्टकी निन्दा सही नहीं जाती, उसको हम सह नहीं सकते । परन्तु साधकको पता नहीं लगता कि मुझे किस बातका दुःख हो रहा है । हम अपने इष्टका मण्डन करते हैं । उस मण्डनमें हम अपने इष्टको कमजोर मानते हैं । कैसे ? यदि हम अपने इष्टको कमजोर न मानें तो क्या हमारे इष्टको मण्डनकी आवश्यकता है ? खण्डन करनेवालेके सामने अपने इष्टका मण्डन करके क्या हम अपने इष्टकी सहायता करते हैं ? अगर सहायता करते हैं तो हमने अपने इष्टको कमजोर ही सिद्ध किया !

अपने इष्टकी निन्दा नहीं सुन सकते तो मत सुनो, पर हमारी सहायतासे उनको बल मिल जायगा, हम अपने इष्टको सिद्ध कर देंगे‒यह बात नहीं है । यदि वह खण्डन करनेवाला व्यक्ति हमारी बात सुनना चाहे तो सुनाओ; क्योंकि वह सुनना चाहेगा, तभी काम ठीक होगा । जैसे, आप सुनना चाहते हैं तो मैं आपको व्याख्यान सुनाता हूँ; परन्तु मैं बाजारमें जाकर सुनाऊँ तो कोई भी नहीं सुनेगा । जो सुननेके लिये तैयार होगा, वही सुनेगा । जो सुननेके लिये तैयार नहीं है, उसको सुनानेसे अपने इष्टका अपमान ही होगा । उसके सामने हम जितना ही अपने इष्टका मण्डन करेंगे, उतनी ही उसकी खण्डनकी वृत्ति तेज होगी और उसकी हमारे इष्टपर अश्रद्धा होगी ।

एक गहरी बात है कि सब परमात्माके अंश होनेसे जैसे हम अपना अपमान नहीं सह सकते, ऐसे ही खण्डन करनेवाला भी अपना अपमान नहीं सह सकता । उसकी बात कटेगी तो उसको बुरा लगेगा ही । बुरा लगेगा तो उसके भीतर हमारे इष्टके खण्डनकी अनेक युक्तियाँ पैदा होंगी, खण्डनकी युक्तियोंका प्रवाह पैदा होगा । फिर उसमें सत्य-असत्य, न्याय-अन्यायका विचार नहीं रहेगा ।

एक जल्पकथा होती है, एक वितण्डाकथा होती है और एक वादकथा होती है । जल्पकथा वह होती है, जिसमें वक्ता अपनी बात कहता चला जाय । वितण्डाकथा वह होती है, जिसमें एक सोचता है कि उसकी बातका खण्डन कैसे हो और दूसरा भी यही सोचता है कि इसकी बातका खण्डन कैसे हो ? यह वितण्डावाद सबसे नीचा कहा गया है । वादकथा वह होती है जिसमें दोनों शान्तचित्तसे सत्य-असत्यका निर्णय करते हैं । सत्य क्या है ? वास्तविकता क्या है ?‒इस बातको समझनेके लिये दोनों शान्तचित्तसे विचार करते हैं । इस वादकथाको भगवान्ने अपना स्वरूप बताया है‒‘वादः प्रवदतामहम्’ (गीता १० । ३२)

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘सत्संगका प्रसाद’ पुस्तकसे