।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि
पौष शुक्ल चतुर्थी, वि.सं.२०७२, बुधवार

खण्डन-मण्डनसे हानि


(गत ब्लॉगसे आगेका)
दूसरा हमारे इष्टका खण्डन क्यों करता है‒इसमें एक बात और समझनेकी है, आप ध्यान दें ! वह हमारे सामने खण्डन करता है तो हमारे अनुष्ठानमें कमजोरी है । अगर हमारा अनुष्ठान कमजोर नहीं होता तो वह खण्डन नहीं कर सकता । हम शान्तिपूर्वक अपने इष्टपर पक्के रहते तो उसमें खण्डन करनेकी हिम्मत नहीं होती; और यदि कोई हमारे इष्टका खण्डन कर रहा होता तो हमारे वहाँ जाते ही वह चुप हो जाता ! जैसे, हम रामजीके भक्त हैं । यदि रामजीमें हमारा पूरा विश्वास, पूरी भक्ति होगी तो खण्डन करनेवाला हमारे सामने चुप हो जायगा, खण्डन नहीं कर सकेगा; और हम चुपचाप रहेंगे तो उसपर हमारा असर पड़ जायगा ।

जिसके भीतर सच्चाई है, उसके लिये कई आदमी कहते हैं कि ‘हम उसके सामने झूठ नहीं बोलेंगे’ । इसी तरह हमारी भक्ति तेज होगी तो उसका दूसरोंपर असर पड़ेगा, खण्डन करनेवालेपर भी असर पड़ेगा और वह चुप हो जायगा; क्योंकि हमारा इष्ट कमजोर नहीं है । सत्यमें बहुत बल है, असत्यमें बल नहीं है । खण्डन करनेवालेमें बल नहीं होता । कबीर साहबने कहा है‒

निंदक तू गल जावसी,    ज्यूँ  पानीमें  लूण ।
कबीर थारे राम रुखालो, निंदक थारे कूण ॥

मैंने सन्तोंकी बातें सुनी हैं । जो असली प्रचारक सन्त होते हैं, वे कुछ नहीं कहते, केवल अपनी मस्तीमें रहते हैं । उनके द्वारा जैसा ठोस प्रचार होता है, वैसा जबानसे नहीं होता । असली असर उनका ही पड़ता है । उनके दर्शनमात्रका दूसरोंपर असर पड़ता है । दत्तात्रेयजी महाराजके दर्शनमात्रसे एक वेश्या सब कुछ छोड़कर भगवान्के भजनमें लग गयी थी । दत्तात्रेयजीने कुछ भी नहीं कहा । शान्त रहनेसे स्वाभाविक असर पड़ता है । शान्तिमें, अपने मतका दृढ़तासे पालन करनेमें बड़ी शक्ति है । एक सन्तने कहा है‒‘लोग समझते हैं कि यह साधु है, ईश्वरका प्रचार करता है, पर मैं ईश्वरका लेशमात्र भी प्रचारक नहीं हूँ । ईश्वरका प्रचार करनेमें मेरेको शर्म आती है कि क्या हमारा ईश्वर इतना कमजोर है कि उसका प्रचार हमको करना पड़े ।’

जो सुनना चाहे, उसीको सुनाना चाहिये । जो सुनना ही नहीं चाहे, उसको क्या कहा जाय ? अपनी बात जबरदस्ती किसीपर लादेंगे तो उसके भीतर उलटी बात पैदा होगी । एक साधु बीमार थे । सन्निपातमें वे उठें तो लोग उनको दबायें । वे फिर उठें तो लोग फिर दबायें । उनको मैंने कहा कि इनको दबाओ मत । बल तो भीतर है नहीं, अपने-आप शान्त हो जायेंगे । आप ज्यों दबाओगे, त्यों ही इनका बल बढ़ेगा । ऐसे ही आप अपनी बात जबरदस्ती दूसरेपर लादोगे तो उसके भीतर विपरीत बात पैदा होगी, जिससे उसका नुकसान तो होगा ही आपका भी नुकसान होगा । सेठजीने कहा था‒कोई सत्संगी भाई कहता है कि हमारा अमुक काम है, हम घर जायँगे । अगर हम उसको कहें कि अभी क्यों जाते हो ? संसारका काम तो ऐसे ही होता रहेगा तो उसके भीतर घर जानेवाली बात ही जोरसे बढ़ेगी । वह कहेगा कि नहीं महाराज ! हमें तो जाना ही पड़ेगा । आपको क्या पता कि हमारा कितना जरूरी काम है ? परन्तु उसको यदि यह कहा जाय कि अच्छा, ठीक है, आपका काम हो तो जाना चाहिये तो वह कहेगा कि महाराज ! यहाँ सत्संगमें रहते तो अच्छा था, पर क्या करें, जाना पड़ता है ! इस प्रकार वह जायगा तो भी सद्भाव लेकर जायगा ।

नारायण !     नारायण !!     नारायण !!!
  
‒‘सत्संगका प्रसाद’ पुस्तकसे