।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि
पौष शुक्ल त्रयोदशी, वि.सं.२०७२, शुक्रवार
जीवकृत सृष्टिसे बन्धन



भगवान् कहते हैं

मत्तः परतर नान्यत्किञ्चिदस्ति धनञ्जय ।
मयि सर्वमिदं प्रोतं  सूत्रे मणिगणा इव ॥
                                         (गीता ७ । ७)

‘हे धनंजय ! मेरेसे बढ़कर इस जगत्का दूसरा कोई किंचिन्मात्र भी कारण नहीं है । जैसे सूतकी मणियाँ सूतके धागेमें पिरोयी हुई होती हैं, ऐसे ही सम्पूर्ण जगत् मेरेमें ही ओतप्रोत है ।’

तात्पर्य है कि जैसे सूतकी मणियाँ हैं, सूतका ही धागा है, सब सूत-ही-सूत है, ऐसे ही संसारमें मैं-ही-मैं हूँ अर्थात् मेरे सिवाय कुछ नहीं है । अतः भगवान्की दृष्टिसे भी संसार भगवत्स्वरूप है और महात्माओंकी दृष्टिसे भी संसार भगवत्स्वरूप है‘वासुदेवः सर्वमिति’ (गीता ७ । १९) । फिर यह संसार कहाँ है ? भगवान् कहते हैं कि जो अपरा प्रकृति है, उससे एक विलक्षण मेरी परा प्रकृति है, जिसको जीव कहते हैं । उस जीवने जगत्को धारण कर रखा है‘ययेदं धार्यते जगत्’ (गीता ७ । ५) । अतः जगत्से सम्बन्ध-विच्छेद करनेका दायित्व जीवपर ही है । जीवका धारण किया हुआ जगत् ही इसके दुःखका हेतु है । अब इसको समझानेके लिये एक बात कहता हूँ, आप ध्यान दें ।

शास्त्रोंमें आया है कि सृष्टि दो तरहकी है । एक भगवान्की रची हुई सृष्टि है और एक जीवकी रची हुई सृष्टि है । भगवान्की रची हुई सृष्टि कभी किसीको दुःख नहीं देती । उसने कभी दुःख दिया नहीं, कभी दुःख देगी नहीं और कभी दुःख दे सकती भी नहीं । भगवान्की रची हुई सृष्टि अगर जीवको दुःख देगी तो जीव दुःखसे कभी छूट सकेगा ही नहीं । तो फिर दुःख कौन देता है ? जीवकी बनायी हुई सृष्टि ही दुःख देती है । जीवकी बनायी हुई सृष्टि क्या है ? यह मेरी माँ है, मेरा बाप है, मेरी स्त्री है, मेरा बेटा है, मेरा भाई है, मेरी भौजाई है; ये हमारे पक्षके हैं, ये दूसरोंके पक्षके हैं; ये हमारी जातिके हैं, ये हमारी जातिके नहीं हैंयह जो ममता-परताका भेद बनाया हुआ है, राग-द्वेष किया हुआ है, यह जीवकी रची हुई सृष्टि है । शरीर भगवान्का रचा हुआ है और उसके साथ सम्बन्ध जीवका रचा हुआ है । यह सम्बन्ध जीवकी सृष्टि है, जो दुःख देती है । जीव जिनके साथ अपना सम्बन्ध नहीं जोड़ता, उनसे दुःख नहीं होता । राग और द्वेष ही जीवके शत्रु हैं‘तौ ह्यस्य परिपन्थिनौ’ (गीता ३ । ३४) । जीव राग और द्वेष कर लेता है, मेरा और तेरा कर लेता है, यही वास्तवमें जीवको दुःख देता है । यह मेरा और तेरा, ठीक और बेठीक, अनुकूल और प्रतिकूल, ये हमारे हैं और ये तुम्हारे हैंयह दशा जीवने धारण की है और इसीसे इसको दुःख पाना पड़ता है ।

    (शेष आगेके ब्लॉगमें)  
‒‘नित्ययोगकी प्राप्ति’ पुस्तकसे