(गत ब्लॉगसे आगेका)
ईश्वरके रचित तो स्त्री-पुरुषोंके शरीर हैं
। सबके शरीर ईश्वरकी प्रकृतिसे बने हुए हैं । इनके मालिक तो हैं परमात्मा और धातु चीज
है प्रकृति । अतः यह सृष्टि न दुःख देनेवाली है और न सुख
देनेवाली है । अगर देखा जाय तो यह सृष्टि इसके व्यवहारको सिद्ध करती है,
इसकी मदद करती है । दुःख तो वहीं होता है, जहाँ
राग-द्वेष (मेरा-तेरा
पैदा) कर लेते हैं; और यह मनुष्यका बनाया
हुआ है‒‘ययेदं धार्यते जगत्’ (गीता ७ । ५) । जीव
जगत्को धारण करता है, इसीसे सुख होता है,
दुःख होता है, बन्धन होता है, चौरासी लाख योनियोंकी प्राप्ति होती है‒‘कारणं गुणसङ्गोऽस्य सदसद्योनिजन्मसु’ (गीता १३ । २१)
। सत्त्व, रज, तम‒तीनों गुण तो बेचारे पड़े रहते हैं, कोई बाधा नहीं देते
। परन्तु इनका संग करनेसे जीव ऊर्ध्वगति, मध्यगति अथवा अधोगतिमें
जाता है अर्थात् सत्त्वगुणका संग करनेसे ऊर्ध्वगतिको, रजोगुणका
संग करनेसे मध्यगतिको और तमोगुणका संग करनेसे अधोगतिको जाता है । गुणोंका संग यह स्वयं
करता है । अपरा प्रकृति किसीके साथ कोई सम्बन्ध नहीं करती । सम्बन्ध न प्रकृति करती
है, न गुण करते हैं, न इन्द्रियाँ करती
हैं, न मन करता है, न बुद्धि करती है ।
यह स्वयं ही सम्बन्ध करता है, इसीलिये सुखी-दुःखी हो रहा
है, जन्म-मरणमें जा रहा है । जीव स्वतन्त्र है; क्योंकि यह परा (श्रेष्ठ) प्रकृति है । वह तो बेचारी अपरा प्रकृति है
। वह कुछ नहीं करती । उससे सम्बन्ध जोड़कर, उसका सदुपयोग-दुरुपयोग करके ऊँच-नीच योनियोंमें जाते हैं, भटकते हैं । यह ‘ययेदं धार्यते जगत्’ (गीता ७ । ५) का अर्थ
हुआ ।
अपनेको सुख-दुःख किसका होता है ? हमारा कोई सम्बन्धी है, प्रेमी है, वह मर जाता है तो दुःख होता है और जी जाता है, अच्छा
हो जाता है तो सुख होता है । यह मेरापन और तेरापन मनुष्यका बनाया हुआ है । यदि मनुष्य
निर्मम और निरहंकार हो जाय, न प्रकृतिके साथ ममता रखे,
न अहंता रखे तो दुःख मिट जायगा और शान्ति प्राप्त हो जायगी‒‘निर्ममो निरहङ्कारः सशान्तिमधिगच्छति’ (गीता २ । ७१) । यह
कर्मयोगकी दृष्टिसे है । ज्ञानयोगकी दृष्टिसे निर्मम-निरहंकार
होनेपर ब्रह्मप्राप्तिका पात्र हो जायगा‒‘अहङ्कारं
बलं दर्पं कामं क्रोध परिग्रहम् । विमुच्य निर्ममः शान्तो ब्रह्मभूयाय कल्पते ॥’ (गीता १८ । ५३) । भक्तियोगकी
दृष्टिसे निर्मम-निरहंकार होनेपर सुख-दुःखमें
सम हो जायगा, क्षमावान् हो जायगा और भगवान्का प्यारा हो जायगा‒‘निर्ममो
निरहङ्कार समदुःखसुखः क्षमी’ (गीता १२
। १३) । इस तरह कर्मयोग, ज्ञानयोग
और भक्तियोग‒तीनोंसे मनुष्य निर्मम और निरहंकार हो जाता है ।
यह ममता और अहंता हमारी
बनायी हुई है । यह जीवकृत सृष्टि है । जीवकृत सृष्टि ही जीवको दुःख देती है, बाँधती
है । जीव स्वयं ही सृष्टि बनाकर बँधता है ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘नित्ययोगकी प्राप्ति’ पुस्तकसे
|