।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि
पौष शुक्ल चतुर्दशी, वि.सं.२०७२, शनिवार
व्रत-पूर्णिमा
जीवकृत सृष्टिसे बन्धन



(गत ब्लॉगसे आगेका)
ईश्वरके रचित तो स्त्री-पुरुषोंके शरीर हैं । सबके शरीर ईश्वरकी प्रकृतिसे बने हुए हैं । इनके मालिक तो हैं परमात्मा और धातु चीज है प्रकृति । अतः यह सृष्टि न दुःख देनेवाली है और न सुख देनेवाली है । अगर देखा जाय तो यह सृष्टि इसके व्यवहारको सिद्ध करती है, इसकी मदद करती है । दुःख तो वहीं होता है, जहाँ राग-द्वेष (मेरा-तेरा पैदा) कर लेते हैं; और यह मनुष्यका बनाया हुआ है‘ययेदं धार्यते जगत्’ (गीता ७ । ५) । जीव जगत्को धारण करता है, इसीसे सुख होता है, दुःख होता है, बन्धन होता है, चौरासी लाख योनियोंकी प्राप्ति होती है‘कारणं गुणसङ्गोऽस्य सदसद्योनिजन्मसु’ (गीता १३ । २१) । सत्त्व, रज, तमतीनों गुण तो बेचारे पड़े रहते हैं, कोई बाधा नहीं देते । परन्तु इनका संग करनेसे जीव ऊर्ध्वगति, मध्यगति अथवा अधोगतिमें जाता है अर्थात् सत्त्वगुणका संग करनेसे ऊर्ध्वगतिको, रजोगुणका संग करनेसे मध्यगतिको और तमोगुणका संग करनेसे अधोगतिको जाता है । गुणोंका संग यह स्वयं करता है । अपरा प्रकृति किसीके साथ कोई सम्बन्ध नहीं करती । सम्बन्ध न प्रकृति करती है, न गुण करते हैं, न इन्द्रियाँ करती हैं, न मन करता है, न बुद्धि करती है । यह स्वयं ही सम्बन्ध करता है, इसीलिये सुखी-दुःखी हो रहा है, जन्म-मरणमें जा रहा है । जीव स्वतन्त्र है; क्योंकि यह परा (श्रेष्ठ) प्रकृति है । वह तो बेचारी अपरा प्रकृति है । वह कुछ नहीं करती । उससे सम्बन्ध जोड़कर, उसका सदुपयोग-दुरुपयोग करके ऊँच-नीच योनियोंमें जाते हैं, भटकते हैं । यह ‘ययेदं धार्यते जगत्’ (गीता ७ । ५) का अर्थ हुआ ।

अपनेको सुख-दुःख किसका होता है ? हमारा कोई सम्बन्धी है, प्रेमी है, वह मर जाता है तो दुःख होता है और जी जाता है, अच्छा हो जाता है तो सुख होता है । यह मेरापन और तेरापन मनुष्यका बनाया हुआ है । यदि मनुष्य निर्मम और निरहंकार हो जाय, न प्रकृतिके साथ ममता रखे, न अहंता रखे तो दुःख मिट जायगा और शान्ति प्राप्त हो जायगी‘निर्ममो निरहङ्कारः सशान्तिमधिगच्छति’ (गीता २ । ७१) । यह कर्मयोगकी दृष्टिसे है । ज्ञानयोगकी दृष्टिसे निर्मम-निरहंकार होनेपर ब्रह्मप्राप्तिका पात्र हो जायगा‘अहङ्कारं बलं दर्पं कामं क्रोध परिग्रहम् । विमुच्य निर्ममः शान्तो ब्रह्मभूयाय कल्पते ॥’ (गीता १८ । ५३) । भक्तियोगकी दृष्टिसे निर्मम-निरहंकार होनेपर सुख-दुःखमें सम हो जायगा, क्षमावान् हो जायगा और भगवान्का प्यारा हो जायगा‘निर्ममो निरहङ्कार समदुःखसुखः क्षमी’ (गीता १२ । १३) । इस तरह कर्मयोग, ज्ञानयोग और भक्तियोगतीनोंसे मनुष्य निर्मम और निरहंकार हो जाता है ।

यह ममता और अहंता हमारी बनायी हुई है । यह जीवकृत सृष्टि है । जीवकृत सृष्टि ही जीवको दुःख देती है, बाँधती है । जीव स्वयं ही सृष्टि बनाकर बँधता है ।

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘नित्ययोगकी प्राप्ति’ पुस्तकसे