(गत ब्लॉगसे आगेका)
सत्त्व, रज और तम‒इन तीनों
गुणोंसे जीव मोहित हो जाता है‒‘त्रिभिर्गुणमयैर्भावैरेभिः
सर्वमिदं जगत्’ (गीता ७ । १३)
। सात्त्विकी, राजसी और तामसी वृत्तियोंसे मोहित
होकर जीव उनमें फँस जाता है । परन्तु न सात्त्विकी वृत्ति हरदम रहती है, न राजसी वृत्ति हरदम रहती है और न तामसी वृत्ति हरदम रहती है । गुणोंका तो
नाशवान् स्वभाव है, उनका नाश होता ही रहता है । आप कितना ही अच्छा
मानो, मन्दा मानो; भला मानो, बुरा मानो, कैसा ही मानो, वे गुण
तो नष्ट होते ही हैं । उनमें परिवर्तन तो होता ही रहता है । आप ही सम्बन्ध जोड़ करके
उनको पकड़ लेते हो । परा, श्रेष्ठ प्रकृति होते हुए भी आपने अपरा
प्रकृतिको धारण कर रखा है, जन्म-मरणको धारण
कर रखा है, महान् दुःखको धारण कर रखा है । आप छोड़ दो तो छूट जायगा
। प्रत्यक्ष उदाहरण है कि आपकी कन्या बड़ी हो जाती है तो चिन्ता होने लगती है और जब
घर-वर अच्छा मिल जाता है तथा आप कन्यादान कर देते हो तो आपकी
वह चिन्ता मिट जाती है । कन्या वही है आप वही हो, सृष्टि वही
है, पर आपको चिन्ता नहीं है । कारण कि जबतक ‘मेरी है’, तबतक चिन्ता है और अब ‘मेरी नहीं है’ तो अब चिन्ता नहीं है । तात्पर्य है कि
अपनी अहंता और ममतासे ही दुःख होता है ।
अहंताको लेकर ‘मैं साधु हूँ, मैं ऐसा हूँ,
मेरेको ऐसा कह दिया, मेरेको ऐसा कर दिया’‒यह आफत किसने पैदा की है ? हम ऐसे-ऐसे हैं, हम पढ़े-लिखे हैं;
हम कौन हैं, समझते हो आप ?‒यह आफत आपने ही बनायी है । आपने ही अपमान पकड़ लिया, मान
पकड़ लिया, महिमा पकड़ ली, निन्दा पकड़ ली,
अनुकूलता पकड़ ली, प्रतिकूलता पकड़ ली । यह आपकी
ही पकड़ी हुई है । आप न पकड़ो तो कोई दुःख देनेवाला है नहीं, हुआ
नहीं, होगा नहीं, हो सकता नहीं । अपनी सृष्टि
बनाकर आप ही फँस गये । आपने ही जगत्को धारण कर लिया,
नहीं तो भगवान् कहते हैं कि सब कुछ मेरेसे ही व्याप्त है‒‘मया ततमिद सर्वं जगदव्यक्तमूर्तिना’ (गीता ९ । ४), ‘येन सर्वमिदं ततम्’ (गीता ८ । २२, १८ । ४६) ।
ये बातें याद कर लेनेमात्रकी नहीं हैं । याद करोगे तो जैसे
मैं व्याख्यान देता हूँ, वैसे
आप भी दे दोगे, पर उससे कल्याण नहीं होगा । ये बातें मूलमें समझनी
हैं कि हमें इसमें फँसना नहीं है, मैं-मेरा
नहीं करना है । ‘मैं अरु मोर
तोर तैं माया । जेहि बस कीन्हे जीव निकाया ॥’ (मानस ३ । १५ । १) ।
मैं और मेरा, तू और तेरा, यह और इसका,
वह और उसका‒यही बन्धन है, जो जीवका बनाया हुआ है । इसको वह छोड़ दे तो निहाल हो जाय ।
जबतक मैं और मेरेपनको धारण किये रहोगे, तबतक दुःख नहीं मिटेगा
। यह मैं-मेरापन ही खास बन्धन है ।
मैं मेरे की
जेवरी, गल बँध्यो
संसार ।
दास कबीरा क्यों बँधे, जाके राम
अधार ॥
सब बन्धनोंकी एक ही चाबी है‒मैं-मेरेका त्याग । मैं-मेरेको
त्याग दो तो बन्धन है ही नहीं ।
श्रोता‒पहले ममताका त्याग
होगा या अहंताका ?
स्वामीजी‒आपकी मरजी आये सो कर लो । ममताका सर्वथा
त्याग कर दो तो अहंताका त्याग हो जायगा, और अहंताका सर्वथा त्याग कर दो तो ममताका
त्याग हो जायगा । जो आपको सुगम पड़े वह कर लो । एकका त्याग
करो तो दूसरेका त्याग अपने-आप
हो जायगा । अहंताके साथ ममता और ममताके साथ अहंता रहती है । ममताका त्याग करो तो अहंता सर्वथा चली जायगी और अहम् ही छोड़ दो तो ममता कहीं
टिकेगी ? आप करके देख लो ।
नारायण ! नारायण !! नारायण !!!
‒‘नित्ययोगकी प्राप्ति’ पुस्तकसे
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