।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि
माघ कृष्ण प्रतिपदा, वि.सं.२०७२, सोमवार
जीवकृत सृष्टिसे बन्धन


(गत ब्लॉगसे आगेका)
सत्त्व, रज और तमइन तीनों गुणोंसे जीव मोहित हो जाता है‘त्रिभिर्गुणमयैर्भावैरेभिः सर्वमिदं जगत्’ (गीता ७ । १३) । सात्त्विकी, राजसी और तामसी वृत्तियोंसे मोहित होकर जीव उनमें फँस जाता है । परन्तु न सात्त्विकी वृत्ति हरदम रहती है, न राजसी वृत्ति हरदम रहती है और न तामसी वृत्ति हरदम रहती है । गुणोंका तो नाशवान् स्वभाव है, उनका नाश होता ही रहता है । आप कितना ही अच्छा मानो, मन्दा मानो; भला मानो, बुरा मानो, कैसा ही मानो, वे गुण तो नष्ट होते ही हैं । उनमें परिवर्तन तो होता ही रहता है । आप ही सम्बन्ध जोड़ करके उनको पकड़ लेते हो । परा, श्रेष्ठ प्रकृति होते हुए भी आपने अपरा प्रकृतिको धारण कर रखा है, जन्म-मरणको धारण कर रखा है, महान् दुःखको धारण कर रखा है । आप छोड़ दो तो छूट जायगा । प्रत्यक्ष उदाहरण है कि आपकी कन्या बड़ी हो जाती है तो चिन्ता होने लगती है और जब घर-वर अच्छा मिल जाता है तथा आप कन्यादान कर देते हो तो आपकी वह चिन्ता मिट जाती है । कन्या वही है आप वही हो, सृष्टि वही है, पर आपको चिन्ता नहीं है । कारण कि जबतक ‘मेरी है’, तबतक चिन्ता है और अब ‘मेरी नहीं है’ तो अब चिन्ता नहीं है । तात्पर्य है कि अपनी अहंता और ममतासे ही दुःख होता है ।

अहंताको लेकर ‘मैं साधु हूँ, मैं ऐसा हूँ, मेरेको ऐसा कह दिया, मेरेको ऐसा कर दिया’यह आफत किसने पैदा की है ? हम ऐसे-ऐसे हैं, हम पढ़े-लिखे हैं; हम कौन हैं, समझते हो आप ?‒यह आफत आपने ही बनायी है । आपने ही अपमान पकड़ लिया, मान पकड़ लिया, महिमा पकड़ ली, निन्दा पकड़ ली, अनुकूलता पकड़ ली, प्रतिकूलता पकड़ ली । यह आपकी ही पकड़ी हुई है । आप न पकड़ो तो कोई दुःख देनेवाला है नहीं, हुआ नहीं, होगा नहीं, हो सकता नहीं । अपनी सृष्टि बनाकर आप ही फँस गये । आपने ही जगत्को धारण कर लिया, नहीं तो भगवान् कहते हैं कि सब कुछ मेरेसे ही व्याप्त है‘मया ततमिद सर्वं जगदव्यक्तमूर्तिना’ (गीता ९ । ४), ‘येन सर्वमिदं ततम्’ (गीता ८ । २२, १८ । ४६) ये बातें याद कर लेनेमात्रकी नहीं हैं । याद करोगे तो जैसे मैं व्याख्यान देता हूँ, वैसे आप भी दे दोगे, पर उससे कल्याण नहीं होगा । ये बातें मूलमें समझनी हैं कि हमें इसमें फँसना नहीं है, मैं-मेरा नहीं करना है । ‘मैं अरु मोर तोर तैं माया । जेहि बस कीन्हे जीव निकाया ॥’ (मानस ३ । १५ । १) । मैं और मेरा, तू और तेरा, यह और इसका, वह और उसकायही बन्धन है, जो जीवका बनाया हुआ है । इसको वह छोड़ दे तो निहाल हो जाय ।

जबतक मैं और मेरेपनको धारण किये रहोगे, तबतक दुःख नहीं मिटेगा । यह मैं-मेरापन ही खास बन्धन है ।

मैं  मेरे  की  जेवरी,   गल  बँध्यो  संसार ।
दास कबीरा क्यों बँधे, जाके राम अधार ॥

सब बन्धनोंकी एक ही चाबी हैमैं-मेरेका त्याग । मैं-मेरेको त्याग दो तो बन्धन है ही नहीं ।

श्रोतापहले ममताका त्याग होगा या अहंताका ?

स्वामीजीआपकी मरजी आये सो कर लो । ममताका सर्वथा त्याग कर दो तो अहंताका त्याग हो जायगा, और अहंताका सर्वथा त्याग कर दो तो ममताका त्याग हो जायगा । जो आपको सुगम पड़े वह कर लो । एकका त्याग करो तो दूसरेका त्याग अपने-आप हो जायगा । अहंताके साथ ममता और ममताके साथ अहंता रहती है । ममताका त्याग करो तो अहंता सर्वथा चली जायगी और अहम् ही छोड़ दो तो ममता कहीं टिकेगी ? आप करके देख लो ।

नारायण !     नारायण !!     नारायण !!!

‒‘नित्ययोगकी प्राप्ति’ पुस्तकसे