।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि
माघ कृष्ण पंचमी, वि.सं.२०७२, शुक्रवार
अलौकिक प्रेम


(गत ब्लॉगसे आगेका)
सांसारिक दुःखसे जन्म-मरणरूप बन्धन नष्ट नहीं होता, पर विरहके दुःखसे यह बन्धन सर्वथा नष्ट हो जाता है‒‘प्रक्षीणबन्धनाः ।’ इसलिये श्रीकृष्णके विरहके तीव्र तापसे गोपियोंका गुणमय शरीर छूट गया । इसेके साथ मन-ही-मन श्रीकृष्णका मिलन होनेसे गोपियोंको ब्रह्मलोकके सुखसे भी विलक्षण सुखका अनुभव हुआ । कारण कि ब्रह्मलोकतक सभी लोक पुनरावर्ती होनेसे बन्धनकारक हैं‒‘आब्रह्मभुवनाल्लोकाः पुनरावर्तिनोऽर्जुन’ (गीता ८ । १६) । अतः ब्रह्मलोकका सुख भी प्राकृत है, जबकि गोपियोंको मिलनेवाला ध्यानजनित सुख प्रकृतिसे अतीत है । तात्पर्य यह हुआ कि भगवान्‌के विरहके दुःखसे और ध्यानजनित मिलनके सुखसे गोपियोंके पाप-पुण्य ही नष्ट नहीं हुए प्रत्युत जन्म-मरणका कारण जो गुणोंका संग है, वह भी नष्ट हो गया ! सत्त्वगुण, रजोगुण और तमोगुण‒तीनों गुणोंका संग मिटनेसे उनका गुणमय शरीर भी छूट गया और वे भगवान्‌के पास जा पहुँचीं‒‘जहुर्गुणमयं देह सद्यः प्रक्षीणबन्धनाः ।’ कारण कि सत्त्व, रज और तम‒तीनों ही गुण जीवको शरीरमें बाँधनेवाले हैं[*] इन गुणोंका संग ही ऊँच-नीच योनियोंमें जन्म लेनेका कारण है ‘कारणं गुणसंगोऽस्य सदसद्योनिजन्मसु’ (गीता १३ । २१) । गुणसंग नष्ट होनेके कारण गोपियाँ किसी ऊँची या नीची योनिमें नहीं गयीं, प्रत्युत सीधे भगवान्‌को ही प्राप्त हो गयीं । तात्पर्य है कि जिनसे कर्मबन्धन होता है, ऐसे शुभ और अशुभ सम्पूर्ण कर्मोंके फलोंसे गोपियाँ मुक्त हो गयीं‒‘शुभाशुभफलैरेवं मोक्ष्यसे कर्मबन्धनैः’ (गीता ९ । २८) । जिस बन्धनके रहते हुए नरकोंका दुःख भोगा जाता है और जिस बन्धनके रहते हुए स्वर्ग, ब्रह्मलोक आदिका सुख भोगा जाता है, गोपियोंका वह बन्धन (गुणोंका संग) सर्वथा नष्ट हो गया । कारण कि बन्धन पाप-पुण्यसे नहीं होता, प्रत्युत गुणोंके संगसे होता है । अतः भागवतके उपर्युक्त श्लोकोंमें आये ‘धुताशुभाः’ पदका अर्थ हुआ कि रजोगुण तथा तमोगुण नष्ट हो गये और ‘क्षीणमङ्गलाः’ पदका अर्थ हुआ कि सत्वगुण नष्ट हो गया[†]

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘मेरे तो गिरधर गोपाल’ पुस्तकसे


[*] सत्वं रजस्तम इति गुणाः प्रकृतिसम्भवाः ।
    निबध्नन्ति महाबाहो देहे देहिनमव्ययम् ॥
                                       (गीता १४ । ५)

[†] आगे राजा परीक्षित और श्रीशुकदेवजीके प्रश्नोत्तरसे भी यही बात सिद्ध होती है कि गोपियाँ तीनों गुणोंसे छूट गयी थीं । परीक्षितने पूछा‒

कृष्णं विदुः परं कान्तं न तु ब्रह्मतया मुने ।
गुणप्रवाहोपरमस्तासां  गुणधियां कथम् ॥
                                     (श्रीमद्भा १० । २९ । १२)

‘मुने ! उन गोपियोंकी श्रीकृष्णमें ब्रह्मबुद्धि नहीं थी, प्रत्युत वे श्रीकृष्णको केवल अपना परमपति ही मानती थीं । फिर उन गुणोंमें आसक्त गोपियोंका गुणप्रवाहरूप गुणमय शरीर कैसे नष्ट हो गया ?

श्रीशुकदेवजीने उत्तर दिया‒

नृणां निःश्रेयसार्थाय  व्यक्तिर्भगवतो नृप ।
अव्ययस्याप्रमेयस्य निर्गुणस्य गुणात्मनः ॥
                                            (श्रीमद्भा १० । २९ । १४)

‘राजन् ! भगवान्‌ अव्यय (सर्वथा निर्विकार), अप्रमेय (ज्ञानका विषय नहीं) सत्त्वादि गुणोंसे रहित और सौन्दर्य आदि दिव्य गुणोंसे युक्त हैं  । वे केवल मनुष्योंके परम कल्याणके लिये ही सबके सामने प्रकट होते हैं ।’