(गत ब्लॉगसे आगेका)
आपको अस्पतालमें आपरेशन करवाना हो तो
पहले यह लिखकर देना पड़ेगा कि अगर मैं मर जाऊँ तो कोई हर्ज नहीं है, तब वे आपरेशन करेंगे । किसीसे भी काम कराना हो तो उसको
पूरा अधिकार देना चाहिये । अधिकार देना हाथकी बात है, पर अधिकार लेना हाथकी बात नहीं है । अतः भगवान् किसीका
अधिकार लेते नहीं हैं । भगवान् अर्जुनके घोड़े हाँकते हैं, उनकी आज्ञाका पालन करते हैं‒‘सेनयोरुभयोर्मध्ये
स्थापयित्वा रथोत्तमम्’ (गीता १ । २४) । परन्तु उनको शरणमें नहीं लेते, प्रत्युत उनको शरणमें आनेके लिये कहते हैं‒‘मामेकं शरणं व्रज’ (गीता १८ । ६६) । शरणमें लेना भगवान्का काम नहीं है
।[1]
भगवान् सबको स्वतन्त्रता देते हैं ।
उदार वही होता है जो सबको स्वतन्त्रता देता है, किसीपर भी अपना हक नहीं जमाता । जो दूसरोंपर हक जमाता
है, वह नीचे दरजेका आदमी होता है । परन्तु आजकल लोगोंकी उलटी बुद्धि हो गयी
कि अगर हम किसीपर हक जमायें तो हम बडे आदमी हो जायँगे, दूसरे हमारा कहना मानें तो हम बड़े हो जायँगे ! वास्तवमें
तुम्हारा कहना माननेसे तुम गुलाम हो जाओगे, बड़े नहीं हो जाओगे । कहना माननेवाला मालिक हो जाता है और कहना मनानेवाला गुलाम
हो जाता है । जो गुलामी कराना ही नहीं चाहता, कोई मेरा मातहत हो जाय‒ऐसी इच्छा ही
नहीं रखता, उसका भी अगर कोई कहना माने, उसके मनके अनुकूल चले तो उसको भी गुलाम
बनना पड़ेगा । भगवान्की आज्ञाके अनुसार चलनेवाला भक्त भगवान्का मुकुटमणि हो जाता है
। भगवान् कहते हैं‒‘भगत मेरे मुकुटमणि’, ‘अहं भक्तपराधीनः’ ( श्रीमद्भा॰ ९ । ४ । ६३) । कोई नौकर मालिकके कहे अनुसार काम करता
है तो वक्तपर मालिकको उसकी बात माननी पड़ती है । अतः जो दूसरेको
मातहत बनाता है,
उसको परतन्त्रता भोगनी ही
पड़ेगी‒यह नियम है ।
दूसरा मेरा कहना माने, मेरे कहनेके अनुसार चले, मेरे मनकी करे; मैं जैसा चाहूँ वैसा हो जाय‒इसीका नाम
‘कामना’
है । अपने मनकी करानेका
नाम ही कामना है । कामनावाले व्यक्तिको कभी शान्ति नहीं मिलती‒‘तद्वत्कामा यं प्रविशन्ति
सर्वे स शान्तिमाप्नोति न कामकामी’ (गीता २ । ७०) । कामनाका त्याग करते ही तत्काल शान्ति
मिलती है‒‘त्यागाच्छान्तिरनन्तरम्’ (गीता १२ । १२) । परन्तु आज उलटी बात हो रही है, शान्ति भी चाहते हैं और मनमें यह कामना भी रखते हैं कि
स्त्री मेरा कहना करे, पुत्र मेरा कहना करे, माँ-बाप मेरा कहना करें, गुरुजी भी मेरा कहना करें । इतना ही नहीं, भगवान् भी मेरा कहना करें ! हम भक्त हैं; अतः भगवान्को हमारा कहना करना चाहिये । नारदजीने भी यही
कहा‒‘करहु सो बेगि दास मैं तोरा’ (मानस, बाल॰ १३२ । ४) । मैं आपका दास हूँ, जल्दी करो मेरा काम ! सभी चाहते हैं कि दूसरा मेरा कहना
करे, तो फिर कहना करेगा कौन ? यह कहे कि वह मेरा कहना करे, वह कहे कि यह मेरा कहना करे, तो दोनों ही ठग हैं ! दो ठगोंमें ठगाई
नहीं होती । श्रेष्ठ,
शूरवीर पुरुष वही है, जो दूसरेका कहना करे । मैं सबका कहना
करूँ, ये जैसा कहें, वैसे करूँ‒ये श्रेष्ठ पुरुषके लक्षण
हैं । भगवान्
सबसे श्रेष्ठ हैं तो वे कैसे कहेंगे कि तू यह कर, ऐसे कर ?
[1] अर्जुन भगवान्को आज्ञा देते हैं कि
दोनों सेनाओंके बीच मेरे रथकी खड़ा करो‒‘सेनयोरुभयोर्मध्ये
रथं स्थापय मेऽच्युत’ (गीता १ । २१ ), तो भगवान् दोनों सेनाओंके बीचमें रथकी खड़ा कर देते हैं
।
(शेष आगेके
ब्लॉगमें)
‒‘अच्छे बनो’ पुस्तकसे
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