(गत ब्लॉगसे आगेका)
कोई अच्छी बात है तो हम उसको दूसरेसे
कराना क्यों चाहें ? दूसरा अच्छा करना नहीं चाहता है क्या ? उस बातको दूसरेके सामने रख दें कि अच्छी
लगे तो करो, नहीं तो मत करो । भगवान्ने भी यही कहा है‒‘सुनहु करहु जो तुम्हहि सोहाई’ (मानस, उत्तर॰ ४३ । २) । वह करे अथवा न करे‒इसमें हमें सम रहना है‒‘सिद्ध्यसिद्ध्योः समो भूत्वा’ (गीता २ । ४८) । अच्छी-से-अच्छी बात सामने रख देना
हमारा काम है, दूसरोंसे करवाना हमारा काम नहीं है
। दूसरेसे करवायेंगे तो उसके पराधीन होना ही पड़ेगा, चाहे उसको मालूम पड़े चाहे न पड़े । वह हमारा कहना करे तो आनन्दकी बात, न करे तो बहुत आनन्दकी बात क्योंकि वह कहना करेगा तो उसका
मातहत बनना पड़ेगा, पर वह कहना करता ही नहीं तो हमारी छुट्टी
हो गयी उससे ! हम उससे बँधेंगे नहीं । जो कहें भी नहीं, चाहें भी नहीं ऐसे भगवान्, सन्त, महात्मा, विरक्त-त्यागी, जीवन्मुक्त महापुरुषोंके मनके अनुकूल भी कोई चले तो उनको
भी बँधना पड़ता है, परवश होना पड़ता है ।
भगवान् और उसके प्यारे भक्त
दूसरेको मातहत नहीं बनाते । परन्तु इसका यह अभिप्राय नहीं है कि वे दूसरेकी दासतासे
भयभीत होते हैं अर्थात् हमें मातहत बनना पड़ेगा‒इस भयसे दूसरोंको आज्ञा नहीं देते ।
भक्त इस कारण दूसरोंको आज्ञा नहीं देते कि अगर दूसरा उनकी
आज्ञा नहीं मानेगा तो उसका पतन हो जायगा; क्योंकि भक्त दूसरेसे कुछ भी चाहते
नहीं, प्रत्युत केवल कृपापरवश होकर उसके हितकी
ही बात कहते हैं । कई लोग ऐसा कहते हैं कि जो भक्ति करता है, उससे भगवान् डरते हैं; क्योंकि उनको भक्तके परवश होना पड़ेगा
। यह बात नहीं है । भगवान्को तो भक्तके परवश होनेमें, भक्तका काम करनेमें आनन्द आता है ।
वृन्दावनमें एक भक्तको बिहारीजीके दर्शन
नहीं हुए । लोग कहते कि अरे ! बिहारीजी सामने ही तो खड़े हैं ! पर वह कहता कि भाई !
मेरेको तो नहीं दीख रहे ! इस तरह तीन दिन बीत गये, पर दर्शन नहीं हुए । उस भक्तने ऐसा विचार किया कि सबको दर्शन होते हैं और मेरेको
नहीं होते, तो मैं बड़ा पापी हूँ कि ठाकुरजी दर्शन
नहीं देते; अतः मेरेको यमुनाजीमें डूब जाना चाहिये
। ऐसा विचार करके रात्रिके समय वह यमुनाजीकी तरफ चला । वहाँ यमुनाजीके पास एक कोढ़ी
सोया हुआ था । उसको भगवान्ने स्वप्नमें कहा कि अभी यहाँपर जो आदमी आयेगा, उसके तुम पैर पकड़ लेना । उसकी कृपासे तुम्हारा कोढ़ दूर
हो जायगा । वह कोढ़ी उठकर बैठ गया । जैसे ही वह भक्त वहाँ आया, कोढ़ीने उसके पैर पकड़ लिये और कहा कि मेरा कोढ़ दूर करो
। भक्त बोला कि अरे ! मैं तो बड़ा पापी हूँ, ठाकुरजी मुझे दर्शन भी नहीं देते ! बहुत झंझट किया; परन्तु कोढ़ीने उसको छोड़ा नहीं । अन्तमें कोढ़ीने कहा कि
अच्छा, तुम इतना कह दो कि तुम्हारा कोढ़ दूर हो जाय । वह बोला
कि इतनी हमारेमें योग्यता ही नहीं । कोढ़ीने जब बहुत आग्रह किया तब उसने कह दिया कि
तुम्हारा कोढ़ दूर हो जाय । ऐसा कहते ही क्षणमात्रमें उसका कोढ़ दूर हो गया । तब उसने
स्वप्नकी बात भक्तको सुना दी कि भगवान्ने ही स्वप्नमें मुझे ऐसा करनेके लिये कहा था
। यह सुनकर भक्तने सोचा कि आज नहीं मरूँगा और लौटकर पीछे आया तो ठाकुरजीके दर्शन हो
गये । उसने ठाकुरजीसे पूछा कि महाराज ! पहले आपने दर्शन क्यों नहीं दिये ? ठाकुरजीने कहा कि तुमने उम्रभर मेरे
सामने कोई माँग नहीं रखी,
मेरेसे कुछ चाहा नहीं; अतः मैं तुम्हें मुँह दिखानेलायक नहीं
रहा ! अब तुमने कह दिया कि इसका कोढ़ दूर कर दो, तो अब मैं मुँह दिखानेलायक हो गया
! इसका क्या अर्थ हुआ
? कि जो, कुछ भी नहीं चाहता, भगवान् उसके दास हो जाते हैं ।
हनुमानजीने भगवान्का कार्य किया तो
भगवान् उनके दास, ऋणी हो गये‒‘सुनु सुत तोहि उरिन मैं नाहीं’ (मानस, सुन्दर॰ ३२ । ४) । सेवा करनेवाला बड़ा हो जाता है और सेवा करानेवाला छोटा
हो जाता है । परन्तु भगवान् और उनके प्यारे भक्तोंको छोटे
होनेमें शर्म नहीं आती । वे जान करके छोटे होते हैं । छोटे बननेपर भी वास्तवमें वे
छोटे होते ही नहीं और उनमें बड़प्पनका अभिमान होता ही नहीं ।
नारायण ! नारायण !! नारायण !!!
‒‘अच्छे बनो’ पुस्तकसे
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