।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि
पौष कृष्ण द्वादशी, वि.सं.२०७२, बुधवार

परमात्मप्राप्तिकी सुगमता



एक बड़े महत्त्वकी बात है । इस तरफ आप ध्यान दें । जितने क्रिया और पदार्थ हैं, वे सब-के-सब उत्पन्न और नष्ट होनेवाले हैं । दूसरे शब्दोंमें कहें तो वे परिवर्तनशील हैं । क्रियाका आरम्भ और अन्त होता है । वस्तु पैदा होती है और नष्ट होती है । कोई घटना होती है तो वह मिट जाती है । परिस्थिति आती है, वह एकरूप नहीं रहती । अवस्था एकरूप नहीं रहती । व्यक्ति एकरूप नहीं रहता । ये सब-के-सब हरदम बदलते रहते हैं । ये सब मिल करके ही संसार है । इसीको संसार कहते हैं । इससे जो सुख चाहता है, वह बहुत बड़ी भूल करता है, मामूली भूल नहीं करता । स्वयं परमात्माका अंश है, परिवर्तनरहित है, नित्य निर्विकार है, उसकी इस परिवर्तनशील संसारसे क्या मिलेगा ? कुछ मिलनेका नहीं है । धोखा हो जायगा; रोना पड़ेगा; पश्चात्ताप करना पड़ेगा ! इस बातको ठीक तरहसे मनुष्य ही समझ सकता है । एक दृष्टिसे देखें तो देवताओंको भी यह अधिकार नहीं है । वे भी भोगोंमें फँसे रहते हैं । जैसे, इस संसारमें बहुत बड़े धनी आदमी हैं, वे सत्संगमें प्रायः नहीं जा पाते, सद्‌गुण-सदाचारका पालन प्रायः नहीं कर पाते, तो फिर इनसे भी ज्यादा भोगी देवता क्या करेंगे ? मनुष्योंमें योग्यता जरूर है, पर भोगोंकी इतनी बहुलता हो गयी कि वे इनसे छूट नहीं सकते । भोगोंकी और संग्रहकी लालसाके कारण वे बड़े जोरोंसे पतनकी तरफ जा रहे हैं । वे नरकोंसे बच नहीं सकते ! भूत, प्रेत, पिशाच, राक्षस, असुर बनेंगे ! वे महान् आफतसे बच नहीं सकते ।

आप स्वयं उस परमात्माके साक्षात् अंश हैं, जो निर्विकाररूपसे सदा ज्यों-का-त्यों रहता है । उसमें कभी परिवर्तन हुआ नहीं, कभी परिवर्तन होगा नहीं और कभी परिवर्तनकी सम्भावना नहीं है । उसके अंश आप भी वैसे-के-वैसे ही हैं । अनेक युग बीत गये, पर आप स्वयं वही हैं‒‘भूतग्रामः स एवायं भूत्वा भूत्वा प्रलीयते’ (गीता ८ । १९) । परन्तु परिवर्तनशील पदार्थोंकी तरफ ध्यान रखनेवाला उस अपरिवर्तनशील तत्त्वको कैसे समझ सकता है ? परिवर्तनशील वस्तुको महत्त्व देनेके कारण वह उसीमें उलझ जाता है; अतः अपरिवर्तनशील तत्त्वकी तरफ वह अपना ध्यान ले जा सकता ही नहीं ।

आपके जितने मनोराज्य हैं कि ‘यह काम हो जाय; वह काम हो जाय’, वे सब-के-सब काम हो जायँ तो कितनी खुशी होगी ! ऐसे ही जितने परिवर्तनशील पदार्थ, व्यक्ति, वस्तु, घटना, परिस्थिति हैं, इन सबका अभाव हो जाय तो कितना आनन्द होगा‒इसका कोई ठिकाना नहीं ! आपको लड़कीकी शादीकी चिन्ता रहती है कि लड़की बड़ी हो गयी, क्या करें ? उसको ठीक घर मिल जाता है, अच्छा वर मिल जाता है और आप योग्यताके अनुसार उसका ब्याह कर देते हो, उसको अपने घर पहुँचा देते हो तो आपको एक प्रसन्नता होती है । आपकी चिन्ता मिट जाती है कि मेरी कन्या अच्छे घर चली गयी, वह सुख पायेगी । इस तरह ये सब जितने झंझट हैं, संसारकी जितनी वस्तु, परिस्थिति, घटना, अवस्था आदि है, वह सब-की-सब अपने घर चली जाय, प्रकृतिमें चली जाय और आप उससे अलग हो जाओ तो कितना आनन्द होगा !

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘स्वाधीन कैसे बनें ?’ पुस्तकसे