(गत ब्लॉगसे आगेका)
आप इस परिवर्तनशील संसारसे
ऊँचे उठ जाओगे, इसमें फँसे नहीं रहोगे तो आपको मुक्तिका आनन्द मिलेगा । अगर संसारसे
विमुख होकर परमात्माके सम्मुख हो जाओगे तो आपको परम आनन्द मिलेगा । इस प्रकार दुःखोंकी
अत्यन्त निवृत्ति और परम आनन्दकी प्राप्ति होना मनुष्यमात्रके लिये सुगम है । अगर आप सुगम नहीं मानते हो तो सम्भव
तो अवश्य ही है । पशु, पक्षी, वृक्ष आदिके लिये इसकी सम्भावना नहीं है । क्या
भूत, प्रेत, पिशाच आदिके लिये इसकी सम्भावना
है ? क्या गाय, भैंस, भेड़, बकरी आदिके लिये इसकी सम्भावना है ? वास्तवमें मनुष्यके लिये इसकी सम्भावना है‒इतनी ही बात नहीं है, प्रत्युत
यह बहुत सुगम है । आपको विश्वास नहीं होता तो उसका हमारे पास कोई इलाज नहीं है । आप कुछ-न-कुछ कल्पना करके मेरे लिये ऐसा मान लेते हो कि यह तो ऐसे
ही कहता है ! मैंने कोई भाँग नहीं पी है । कोई नशेमें आकर मैं नहीं कहता हूँ । फिर
भी आपका विश्वास नहीं बैठता तो उसका कोई इलाज नहीं है ।
भगवत्प्राप्ति बहुत सुगम
है, बहुत सरल
है । संसारमें इतना सुगम काम कोई है ही नहीं, हुआ ही नहीं,
होगा ही नहीं, हो सकता ही नहीं । भगवान्ने कृपा
करके अपनी प्राप्तिके लिये ही मानव-शरीर दिया है, अतः उनकी प्राप्तिमें
सुगमता नहीं होगी तो फिर सुगमता किसमें होगी ? भगवत्प्राप्तिके सिवाय मनुष्यका क्या
प्रयोजन है ? दुःख भोगना हो तो नरकोंमें जाओ, सुख भोगना हो तो स्वर्गमें जाओ और दोनोंसे
ऊँचा उठकर असली तत्त्वको प्राप्त करना हो तो मनुष्य-शरीरमें आओ । ऐसी विलक्षण स्थिति
मनुष्य-शरीरमें ही हो सकती है और बहुत जल्दी हो सकती है । इसमें आपको केवल इतना ही काम करना है कि आप इसकी उत्कट अभिलाषा जाग्रत्
करो कि हमें तो इसीको लेना है । इतनी जोरदार अभिलाषा जाग्रत् हो कि आपको धन और भोग
अपनी तरफ खींच न सकें । सुख-सुविधा, सम्मान, आदर‒ये आपको न खींच सकें । जैसे बचपनमें खिलौने बड़े अच्छे लगते थे, पी-पी सीटी
बजाना बड़ा अच्छा लगता था, पर अब आप उनसे ऊँचे उठ गये । अब वे
अच्छे नहीं लगते । अब मिट्टीका घोड़ा, सीटी आदि अच्छे लगते हैं
क्या ? क्या मनमें यह बात आती है कि हाथमें झुनझुना ले लें और
बजायें ? जैसे इनसे ऊँचे उठ गये, इस तरहसे
पदार्थोंसे, भोगोंसे, रुपयोंसे,
सुखसे, आरामसे, मानसे, बड़ाईसे, प्रतिष्ठासे, वाह-वाहसे
ऊँचे उठ जाओ, तो उस तत्त्वकी प्राप्ति स्वतः हो जायगी । न सम्मान रहेगा, न प्रतिष्ठा रहेगी, न पदार्थ रहेंगे, न रुपये रहेंगे, न कुटुम्ब रहेगा, न शरीर रहेगा, न यह परिस्थिति रहेगी । ये तो रहेंगे नहीं
। इनके रहते हुए इनसे ऊँचे उठ जाओ तो तत्त्वकी प्राप्ति तत्काल हो जाय; क्योंकि वह तो नित्यप्राप्त है । केवल इधर उलझे रहनेके कारण उसकी अनुभूति नहीं
हो रही है ।
‒‘स्वाधीन कैसे बनें ?’ पुस्तकसे
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