।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि
पौष कृष्ण त्रयोदशी, वि.सं.२०७२, शुक्रवार

परमात्मप्राप्तिकी सुगमता



(गत ब्लॉगसे आगेका)
श्रोता‒हमलोग कितना सुनते हैं, प्रयत्न भी करते हैं, फिर भी संसारसे सुखबुद्धि नहीं जाती महाराजजी !

स्वामीजी‒इसमें आपका प्रयत्न काम नहीं देगा, आपका दुःख काम देगा । यह जो संसारकी आसक्ति मिटती नहीं है, इसका दुःख होना चाहिये, जलन होनी चाहिये कि कैसे करूँ ! यह कैसे मिटे ? यह दुःखकी मात्रा बढ़ेगी, तब यह आसक्ति मिटेगी । यह प्रयत्नसे नहीं मिटती । प्रयत्न जितना करोगे, संसारका सहारा लेकर करोगे, मन-बुद्धि-इन्द्रियाँ-शरीरका सहारा लेकर करोगे । जडका आश्रय लेना पड़ेगा । फिर जडतासे ऊँचे कैसे उठोगे ? पर इसका दुःख होगा, जलन होगी, सन्ताप होगा तो इस आगमें यह शक्ति है कि संसारके भोगोंकी और संग्रहकी इच्छाको जला देगी । आपको ऐसी लगन लग जाय कि हमें तो उस तत्त्वको ही प्राप्त करना है । अधूरी चीज नहीं लेनी है । अधूरा सुख नहीं लेना है । निर्वाहमात्रकी रोटी खा लेनी है, निर्वाहमात्रका कपड़ा पहन लेना है । हमें सुख नहीं लेना है, आराम नहीं लेना है । ऐसे विचार होनेसे उसकी उत्कट अभिलाषा जाग्रत् होगी । उत्कट अभिलाषा होनेसे उस तत्त्वका अनुभव हो जायगा, क्योंकि वह तत्त्व सब जगह मौजूद है, संसार मौजूद नहीं है ।

श्रोता‒ऐसा विचार कैसे उत्पन्न हो ?

स्वामीजी‒अभी जो बातें कही हैं, इन बातोंका आदर करो । आप अनुकूल भोजनमें राजी हो जाते हो, कोई आपको बढ़िया-बढ़िया भोजन परोसे तो राजी हो जाते हो, कोई आदर करे तो राजी हो जाते हो, तो अधिकारी नहीं हो इस तत्त्वके ! जो अनुकूलतामें राजी होता है उसमें मनुष्यपना है ही नहीं ! अगर परमात्मप्राप्ति चाहते हो तो इसमें उलझो मत । इसमें सुख मत मानो । कोई आपके अनुकूल हो जाय तो बड़ा अच्छा लगता है और कोई आपके हितकी कड़वी बात कह दे तो आपको बुरा लगता है । जिसको हितकी बात भी बुरी लगती है, वह कैसे उस तत्त्वको प्राप्त कर सकता है ? जो आपके मनके अनुकूल चिकनी-चुपड़ी बात करे, वह आदमी अच्छा लगता है तो आप इस तत्त्वके अधिकारी नहीं हो । आप असली सत्संगमें टिक नहीं सकते, ठहर नहीं सकते । बिना ठहरे उस तत्त्वकी प्राप्ति होती नहीं । यह अपने हृदयपर हाथ रख करके सोचो ।

वह तत्व सबमें निरन्तर रहता है । सब देशमें, सब कालमें, सब वस्तुओंमें, सम्पूर्ण व्यक्तियोंमें, सम्पूर्ण परिस्थितियोंमें, सम्पूर्ण घटनाओंमें, सम्पूर्ण अवस्थाओंमें वह तत्त्व निरन्तर ज्यों-का-त्यों रहता है । अतः इन सब नष्ट होनेवाली वस्तुओंसे विमुख हो जाओ अर्थात् इनसे सुख मत लो, इनमें रीझो मत, उलझो मत । तत्त्व यहाँ ही मिल जायगा । अगर इससे सुख लोगे तो दुःखके सिवाय कुछ नहीं मिलेगा ।

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)               
‒‘स्वाधीन कैसे बनें ?’ पुस्तकसे