।। श्रीहरिः ।।



आजकी शुभ तिथि
फाल्गुन कृष्ण षष्ठी, वि.सं.२०७२, सोमवार
साधकोंके प्रति-१३





(गत ब्लॉगसे आगेका)


हमने एक कहानी सुनी थी । एक परिवारमें ब्राह्मण, ब्राह्मणी, बेटा और बहू‒ये चार प्राणी थे । लड़का जवान था पर अचानक मर गया । लड़का अग्निमें पड़ा था । लोग इकट्ठे हो गये । पर वह ब्राह्मण देवता उठकर चल दिये । लोगोंने पूछा‒कहाँ जाते हो ? उन्होंने कहा- मैं साधु होऊँगा और भजन करूँगा ।’ लोगोंने कहा‒‘अरे ! तुम्हें दया नहीं आती इनपर । जवान लड़का मर गया है । घरमें दो स्त्रियाँ हैं बेचारी । उनका पालन-पोषण कौन करेगा। उन्होंने कहा‒पीछे इनका पालन-पोषण कौन करेगा‒यह चिन्ता इसने (जवान लड़केने) तो की ही नहीं और सबको छोड़कर चला गया । मैं बूढ़ा क्या चिन्ता करूँ ? लोगोंने फिर कहा‒महाराज ! इसको उठाओ तो सही !वे बोले‒इस घरमें और श्मशानमें क्या फर्क है ? मेरे तो श्मशान ही घर है और घर ही श्मशान है । आप लोग इसको भले ही यहाँ रखो, वहाँ रखो, चाहे कहीं रखो । मैं तो जाता हूँ ।’ ऐसा कहकर वे चट चल दिये ।

बहुत पुरानी बात है । विक्रम संवत् उन्नीस-सौ पचहत्तरकी होगी, ठीक याद नहीं । उस समय वेदान्त-केसरीपत्र निकलता था । उसमें एक बात आयी थी कि बम्बईमें समुद्रके किनारे घूमते-घूमते एक आदमी किसी दीवारपर बैठ गया । इतनेमें एक जवान लड़का धोती-लोटा लेकर स्नानके लिये समुद्रके किनारे आया । उसने धोती-लोटा तो किनारेपर रख दिया और स्नानके लिये समुद्रमें उतर गया तो उतर ही गया । वह पीछे आया ही नहीं, डूब गया । लोगोंने ढूँढ़ा तो उसकी लाश मिली । अब जो आदमी दीवारपर बैठा था, उसने यह सब देख लिया । बस वह वहाँसे चल दिया, न घरवालोंसे कहा और न किसीसे कुछ कहा । उसने यही विचार कर लिया कि मरते इतनी देरी लगती है तो इस शरीरका क्या भरोसा ? मैं तो भजन करूँगा । उस तत्त्वकी प्राप्त करना है मेरेको ।

अभी पाँच-सात वर्ष पहले अखबारमें एक बात निकली थी । नागपुरमें चार युवक आपसमें बातचीत कर रहे थे कि कैसे साधु हो जायँ ?’ तो उनमेंसे एकने कहा‒कैसे क्या? ऐसे किया और हुआ ।’ तो उन तीनोंने कहा‒तुम बन जाओ साधु ।’ उसने कहा‒हाँ हम भी साधु बन जायेंगे और भजन करेंगे ।’ उन तीनोंने फिर कहा‒गोपीचन्द जैसे अपनी स्त्रीको ‘माँ’ कहकर भिक्षा ले आये थे, ऐसे ही तुम भी अपनी स्त्रीको ‘माँ’ कहकर भिक्षा लाओगे ?उसने कहा‒हाँ, हम भी भिक्षा ले आयेंगे ।’ उसने वैसा ही किया और घर जाकर अपनी स्त्रीसे कहा‒माई ! भिक्षा दो ।’ यह कैसे होता है ? ऐसे होता है । विचार हो गया, तो हो ही गया । अब इधर-उधर हो ही नहीं सकता । मरनेवाला क्या मुहूर्त पूछकर मरता है ? ऐसे ही एक विचार कर ले कि दुनिया भला कहे या बुरा, सुख पाये या दुःख, धन मिले या चला जाय; चाहे कुछ हो जाय, हमें तो उस तत्त्वको प्राप्त करना ही है । इसीको अनन्यता कहते है ।

का माँगूं कुछ थिर न रहाई, देखत नैन चल्या जग जाई ॥
इक लख पूत सवा लख नाती, ता रावन धरि न दिया न बाती ॥
लंका सी कोट समंद सी रवाई, ता रावनि की खबरि न पाई ॥
आवत संगि न जात संगाती, कहा भयौ दरि बाँधे हाथी ॥
कहै कबीर अंतकी बारी, हाथ झाड़ि जैसे चले जुवारी ॥

नारायण !     नारायण !!     नारायण !!!

 ‒‘साधकोंके प्रति’पुस्तकसे

   

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।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि
फाल्गुन कृष्ण पंचमी, वि.सं.२०७२, रविवार
साधकोंके प्रति-१३



(गत ब्लॉगसे आगेका)

सांसारिक पद, अधिकार आदि दोको भी एक समान नहीं मिलेगा; परन्तु पहले जो शुकदेव मुनि हुए, सनकादि हुए, ब्रह्माजी हुए, भगवान् शंकर हुए, जीवन्मुक्त ऋषि हुए, बड़े-बड़े ज्ञानी महापुरुष हुए, उनको जो तत्त्व मिला है, वही तत्व आज हरेक मनुष्यको मिल सकता है, मनुष्यमात्रको मिल सकता है । पर शर्त इतनी ही है कि सांसारिक सुख और संग्रहको नापसन्द कर दे कि हमें सांसारिक सुख और संग्रह लेना नहीं है । सांसारिक सुख आ जाय, संग्रह हो जाय तो क्या करे ? जैसे अनजानमें मैलेपर पग चला जाय, टिक जाय और पग मैलेसे भर भी जाय तो क्या करें ? तो स्नान करके साफ करो । ऐसे ही संसारका सुख-आराम मिले, रुपये, सोना, हीरे, रत्न मिलें तो समझे कि मैलेपर पग टिक गया । पर उसको हमें लेना नहीं है । हम तो केवल परमात्मतत्त्वको ही चाहते है । इसके सिवाय हमें कुछ भी लेना नहीं है‒यह अनन्य भक्ति है ।

मनुष्य-शरीर प्राप्त करके अगर धन प्राप्त कर लिया, भोग प्राप्त कर लिये, मान-बड़ाई प्राप्त कर ली, तो मनुष्य-शरीर निष्फल है । धन आदिमें ही अटक गये, यहाँकी चीजोंमें ही अटक गये तो क्या मनुष्य हुए ? मनुष्यपना क्या हुआ ? क्योंकि मनुष्य-शरीर बहुत दुर्लभ है‒दुर्लभो मानुषो देहः ।’ सद्‌ग्रन्थोंमें यह मनुष्य-शरीर देवताओंके लिये भी दुर्लभ बताया है‒‘बड़े भाग मानुष तनु पावा । सुर दुर्लभ सब ग्रंथन्हि गावा ॥’ ऐसे मनुष्य-शरीरको प्राप्त करके फिर केवल भोग भोग ले, रुपया इकट्ठा कर ले ! कितना कर लोगे ! अन्तमें सब किया हुआ उद्योग गुड़-गोबर हो जायगा, कुछ भी काम नहीं आयेगा । परन्तु मनुष्य उसीमें राजी हो रहे हैं कि हम यह ले लेंगे, वह ले लेंगे । क्या ले लोगे, यह कोई लेनेकी चीज है ? जिसके साथ आप नहीं रह सकते और आपके साथ वह नहीं रह सकती, इसको क्या तो लिया । धोखा हुआ है धोखा ! विश्वासघात हुआ और कुछ नहीं हुआ, वह भी जानकर आपने किया । आपने अपने ही पैरोंमें आप ही कुल्हाड़ी मारी । अतः सारं ततो ग्राह्यमपास्य फल्गु’ व्यर्थ छोड़कर उस सार चीजको, उस सत्य-तत्त्वको ग्रहण करना चाहिये, जिसका कभी अभाव नहीं होता । उसको प्राप्त होनेपर महासर्गमें भी पैदा नहीं होते तथा महाप्रलयमें भी व्यथित नहीं होते; सदा मस्ती, सदा मौज-ही-मौज रहती है‒‘सर्गेऽपि नोपजायन्ते प्रलये न व्यथन्ति च’ (गीता १४ । २) । उस तत्त्वकी प्राप्ति इस शरीरके रहते-रहते थोड़े-से-थोड़े समयमें हो सकती है । उसकी प्राप्तिके लिये न किसी विद्याकी जरूरत है, न किसी योग्यताकी जरूरत है । केवल अपनी चाहनाकी जरूरत है । वह चाहना ऐसी होनी चाहिये कि मेरेको सांसारिक वस्तु आदि कुछ भी मिले, तत्त्वकी प्राप्ति किये बिना मैं उसमें ठहरूँगा नहीं । मेरेको तो वही चाहिये, दूसरा कुछ भी नहीं । अब ऐसी चाहना हो जायगी, ऐसी लगन लग जायगी तो आपको उसकी प्राप्तिकी सामग्री मिल जायगी, ग्रन्थ मिल जायगा, गुरु मिल जायगा, सब मिल जायगा । परमात्माके मौजूद रहते कौन-सी सामग्री बाकी रहेगी ? पर सब कुछ होते हुए भी मनुष्यको यह वहम रहता है कि थोड़ा यह काम कर लें, थोड़ा वह काम भी कर लें । यों थोड़ा करते-करते खत्म हो जाओगे भाई, मिलेगा कुछ नहीं ।
   
    (शेष आगेके ब्लॉगमें)
 ‒‘साधकोंके प्रति’पुस्तकसे




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