।। श्रीहरिः ।।



आजकी शुभ तिथि
माघ कृष्ण अष्टमी, वि.सं.२०७२, सोमवार
अलौकिक प्रेम



(गत ब्लॉगसे आगेका)
भगवान्‌ श्रीकृष्णका एक नाम आता है‒‘चोरजारशिखामणि ।’ इसका अर्थ है कि भगवान्‌के समान चोर और जार दूसरा कोई है ही नहीं, हो सकता ही नहीं । दूसरे चोर और जार तो केवल अपना ही सुख चाहते हैं, पर भगवान्‌ केवल दूसरेके सुखके लिये चोर और जारकी लीला करते हैं । उनकी ये दोनों ही लीलाएँ दिव्य, विलक्षण, अलौकिक हैं‒‘जन्म कर्म च मे दिव्यम्’ (गीता ४ । ९)[1] संसारी चोर तो केवल वस्तुओंकी ही चोरी करते हैं, पर भगवान्‌ वस्तुओंके साथ-साथ उन वस्तुओंके राग, आसक्ति, प्रियता आदिको भी चुरा लेते हैं । भगवान्‌ने गोपियोंके मक्खनके साथ-साथ उनके रागरूप बन्धनको भी खा लिया था । वे जार बनते हैं तो सुखके भोक्ताके साथ-साथ सुखासक्ति, सुखबुद्धिका भी हरण कर लेते हैं, जिससे सम्बन्धजन्य आकर्षण (काम) न रहकर केवल भगवान्‌का आकर्षण (विशुद्ध प्रेम) रह जाता है, अन्यकी सत्ता न रहकर केवल भगवान्‌की सत्ता रह जाती है । तात्पर्य है कि भगवान्‌ अपने भक्तोंमें किसीको चोर और जार रहने ही नहीं देते, उनके चोर-जारपनेको ही हर लेते हैं । ‘कनक’ (धन) और ‘कामिनी’ (स्त्री)-की आसक्तिसे ही मनुष्य ‘चोर’ और ‘जार’ होता है । अतः कनक-कामिनीकी आसक्तिका सर्वथा अभाव करनेवाले होनेसे भगवान्‌ चोर और जारके भी शिखामणि हैं ।

यहाँ शंका हो सकती है कि जिन गोपियोंका गुणमय शरीर नहीं रहा, उनकी भगवान्‌के साथ रासलीला कैसे हुई ? इसका समाधान है कि वास्तवमें रासलीला गुणोंसे अतीत (निर्गुण) होनेपर ही होती है । गुणोंके रहते हुए भगवान्‌के साथ जो सम्बन्ध होता है, उसकी अपेक्षा गुणोंसे रहित होकर भगवान्‌के साथ होनेवाला सम्बन्ध अत्यन्त विलक्षण है । दास्य, सख्य, वात्सल्य, माधुर्य आदि भाव भी वास्तवमें गुणातीत (मुक्त) होनेपर ही होते हैं ।[2] एक श्लोक आता है‒

द्वैत   मोहाय    बोधात्प्राग्जाते    बोधे   मनीषया ।
भक्त्यर्थं कल्पितं (स्वीकृतं) द्वैतमद्वैतादपि सुन्दरम् ॥
                                             (बोधसार, भक्ति ४२)

‘तत्त्वबोधसे पहलेका द्वैत तो मोहमें डालता है, पर बोध हो जानेपर भक्तिके लिये स्वीकृत द्वैत अद्वैतसे भी अधिक सुन्दर होता है ।’

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘मेरे तो गिरधर गोपाल’ पुस्तकसे


[1] यद्यपि देवता भी दिव्य कहलाते हैं, तथापि उनकी दिव्यता मनुष्योंकी अपेक्षासे कही जाती है । परन्तु भगवान्‌की दिव्यता निरपेक्ष होनेसे देवताओंसे भी विलक्षण है । इसलिये देवता भी भगवान्‌के दिव्यातिदिव्य रूपके दर्शनकी नित्य इच्छा रखते हैं‒‘देवा अप्यस्य रूपस्य नित्यं दर्शनकाङ्क्षिणः’ (गीता ११ । ५२)
[2] भक्तियोगकी यह विलक्षणता है कि उसमें साधक पहलेसे ही (गुणोंके रहते हुए भी) भगवान्‌में दास्य, सख्य, वात्सल्य आदि भाव कर सकता है ।