।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि
माघ शुक्ल द्वितीया, वि.सं.२०७२, बुधवार
हम कर्ता-भोक्ता नहीं हैं


(गत ब्लॉगसे आगेका)
जैसे हम मकानमें बैठे हुए भी मकानमें नहीं हैं, चट छोड़कर चल देते हैं, ऐसे ही शरीरमें रहते हुए भी हम शरीरमें नहीं हैं, हम कर्ता-भोक्ता नहीं हैं । इस बातको केवल मानना है, स्वीकार करना है । इसके लिये पढ़ाईकी जरूरत नहीं है । इसको सभी भाई-बहन स्वीकार कर सकते हैं कि हम भगवान्‌के अंश हैं, हम कर्ता-भोक्ता नहीं हैं । प्रकृतिका विभाग अलग है और चेतनका विभाग अलग है । कर्तापन-भोक्तापन प्रकृति-विभागमें है और ‘न करोति न लिप्यते’ चेतन-विभागमें है । पहलेके अभ्यासके कारण भले ही अभी इसका अनुभव न हो, पर वास्तवमें बात ऐसी ही है । हम बिलकुल निर्लेप हैं । मुक्ति होती नहीं है, मुक्ति है । केवल अनुभव करना है । गीतामें आया है‒

अपि चेदसि पापेभ्यः सर्वेभ्यः पापकृत्तमः ।
सर्वं  ज्ञानप्लवेनैव  वृजिनं  सन्तरिष्यसि ॥
                                                    (४ । ३६)

‘अगर तू सब पापियोंसे भी अधिक पापी है, तो भी तू ज्ञानरूपी नौकाके द्वारा निःसन्देह सम्पूर्ण पाप-समुद्रसे अच्छी तरह तर जायगा ।’

विवेक, वैराग्य, मुमुक्षा आदि होना तो दूर रहा, सब पापियोंसे भी अधिक पापी हो तो वह भी ज्ञान प्राप्त कर सकता है  ! ‘न करोति न लिप्यते’ का अनुभव कर सकता है ! हम चाहे ज्ञानमार्गसे चलें, चाहे भक्तिमार्गसे चलें, सबसे पहले यह स्वीकार कर लें कि ‘मैं भगवान्‌का अंश हूँ ।’ कर्तृत्व और लिप्तता स्वाभाविक ही हमारेमें नहीं हैं । ऐसा विचार करके चुप हो जायँ । इस बातको पक्की कर लें कि वास्तवमें बात ऐसी ही है । इसको हम भूल जायँ तो भी बात ऐसी ही है । भूल अन्तःकरणमें होती है । हमारेमें भूल होती ही नहीं, हो सकती ही नहीं । हम भले ही सच्ची बातको भूल जायँ और कर्ता-भोक्ता बन जायँ तो भी वास्तवमें हम कर्ता-भोक्ता नहीं हैं । आप केवल इतना विचार रखें कि ‘शरीरस्थोऽपि कौन्तेय न करोति न लिप्यते’‒यही बात सच्ची है । गलत मान्यता सही मान्यतासे कट जाती है । सही मान्यता करनेमें, सच्ची बातको माननेमें कोई उद्योग, परिश्रम नहीं है ।

नारायण !     नारायण !!     नारायण !!!

‒‘मेरे तो गिरधर गोपाल’ पुस्तकसे