।। श्रीहरिः ।।



आजकी शुभ तिथि
माघ शुक्ल चतुर्थी, वि.सं.२०७२, शुक्रवार
रासलीला‒प्रतिक्षण वर्धमान प्रेम




(गत ब्लॉगसे आगेका)
भक्तका भगवान्‌में दास्य, सख्य, वात्सल्य, माधुर्य आदि कोई भी भाव हो, भक्तकी अपनी अलग सत्ता नहीं होती; क्योंकि प्रेममें भक्त और भगवान्‌ एक होकर दो होते हैं और दो होकर भी एक ही रहते हैं । इसलिये प्रेमी और प्रेमास्पद‒दोनोंमें कभी सेवक स्वामी हो जाता है, कभी स्वामी सेवक हो जाता है । शंकरजीके लिये कहा भी है‒‘सेवक स्वामि सखा सिय पी के’ (मानस, बाल १५ । २) । दक्षिण भारतमें एक मन्दिर है, जिसमें शंकरजीने नन्दीको उठा रखा है ! कभी नन्दीके ऊपर शंकरजी हैं, कभी शंकरजीके ऊपर नन्दी हैं ! कभी भगवान्‌ भक्तके इष्ट बन जाते हैं, कभी भक्त भगवान्‌का इष्ट बन जाता है‒‘इष्टोऽसि मे दृढमिति’ (गीता १८ । ६४) । कभी श्रीकृष्ण राधा बन जाते हैं, कभी राधा श्रीकृष्ण बन जाती है ।

ज्ञानका अखण्डरस तो शान्त है, पर प्रेमका अनन्तरस प्रतिक्षण वर्धमान है । प्रतिक्षण वर्धमान कहनेका अर्थ यह नहीं है कि प्रेममें कुछ कमी रहती है और उस कमीकी पूर्तिके लिये वह बढ़ता है । वास्तवमें प्रेम कम या अधिक नहीं होता । जैसे, समुद्र भीतरसे शान्त रहता है, पर बाहरसे उसपर लहरें उठती हैं और चन्द्रमाको देखकर उसमें उछाल आता है । परन्तु लहरें उठनेपर, उछाल आनेपर भी समुद्रका जल कम-ज्यादा नहीं होता, उतना-का-उतना ही रहता है । ऐसे ही प्रेमके अनन्तरसमें लहरें उठती हैं, उछाल आता है, पर वह कम-ज्यादा नहीं होता । जब प्रेम शान्त रहता है, तब प्रेमी और प्रेमास्पद एक अर्थात् अभिन्न होते हैं; और जब प्रेममें उछाल आता है, तब प्रेमी और प्रेमास्पद दो होते हैं । प्रेमी और प्रेमास्पद एक होते हुए भी दो होते हैं‒यह विरह है और दो होकर भी एक ही रहते हैं‒यह मिलन है ।

इस प्रकार प्रतिक्षण वर्धमान रस (प्रेम)-का ही नाम ‘रास’ है । कल्पना करें कि किसीको ऐसी प्यास लगे, जो कभी बुझे नहीं और जल भी घटे नहीं तथा पेट भी भरे नहीं तो ऐसी स्थितिमें जलके प्रत्येक घूँटमें नित्य नया रस मिलेगा । इसी तरह प्रेममें भी श्रीकृष्णको देखकर श्रीजीको और श्रीजीको देखकर श्रीकृष्णको नित्य नया रस मिलता है और उन दोनोंके रसका अनुभव गोपियाँ करती हैं ! प्रेमकी इस वृद्धिका नाम ही ‘रासलीला’ है ।

नारायण !     नारायण !!     नारायण !!!

‒‘मेरे तो गिरधर गोपाल’ पुस्तकसे