।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि
माघ शुक्ल अष्टमी, वि.सं.२०७२, सोमवार
अनिर्वचनीय प्रेम


(गत ब्लॉगसे आगेका)
प्रेम प्रतिक्षण वर्धमान तभी होता है, जब उसमें पहली अवस्थाका क्षय और दूसरी अवस्थाका उदय होता है । पहली अवस्थाका त्याग नित्यविरह’ और दूसरी अवस्थाकी प्राप्ति नित्यमिलन’ है । वास्तवमें देखा जाय तो प्रेममें क्षय या उदय, त्याग या प्राप्ति है ही नहीं, प्रत्युत प्रेमके नित्य-निरन्तर ज्यों-के-त्यों रहते हुए ही प्रतिक्षण वर्धमान होनेसे उसमें क्षय या उदयकी प्रतीति होती है ।

प्रेममें प्रेमीको अपनेमें एक कमीका भान होता है, जिससे उसमें प्रेम और बढ़े, और बढ़े’ यह लालसा (भूख) होती है । अगर सूक्ष्म दृष्टिसे देखा जाय तो और बढ़े, और बढ़े’ इस लालसामें प्रेमकी प्राप्ति भी है और कमी भी ! कमी नहीं है, फिर भी कमी दीखती है । इसलिये प्रेमको अनिर्वचनीय कहा गया है‒

अनिर्वचनीयं प्रेमस्वरूपम् । मूकास्वादनवत् ।
                                                (नारद ५१-५२)

आनन्द भी आये और कमी भी दीखे‒यह प्रेमकी अनिर्वचनीयता है ।

जो पूर्णताको प्राप्त हो गये हैं, जिनके लिये कुछ भी करना, जानना और पाना शेष नहीं रहा, ऐसे महापुरुषोंमें भी प्रेमकी भूख रहती है । उनका भगवान्‌की तरफ स्वतः-स्वाभाविक खिंचाव होता है । इसलिये भगवान्‌ आत्मारामगणाकर्षी’ कहलाते हैं । सनकादि मुनि ब्रह्मानंद सदा लयलीना होते हुए भी भगवल्लीला-कथा सुनते रहते है‒

आसा बसन व्यसन यह तिन्हहीं ।
रघुपति चरित  होइ तहँ सुनहीं ॥
                                  (मानस, उत्तर ३२ । ३)

जब वे वैकुण्ठधाममें गये, तब वहाँ भगवान्‌के चरणकमलोंकी दिव्य गन्धसे उनका स्थिर चित्त भी चंचल हो उठा‒

तस्यारविन्दनयनस्य पदारविन्द-
किञ्जल्कमिश्रतुलसीमकरन्दवायुः ।
अन्तर्गतः स्वविवरेण चकार तेषां
संक्षोभमक्षरजुषामपि चित्ततन्वोः ॥
                                      (श्रीमद्भा ३ । १५ । ४३)

‘प्रणाम करनेपर उन कमलनेत्र भगवानके चरण-कमलके परागसे मिली हुई तुलसी-मंजरीकी वायुने उनके नासिका-छिद्रोंमें प्रवेश करके उन अक्षर परमात्मामें नित्य स्थित रहनेवाले ज्ञानी महात्माओंके भी चित्त और शरीरको क्षुब्ध कर दिया ।’

भगवान्‌ श्रीरामको देखकर तत्वज्ञानी जनक भी कह उठे‒

सहज   बिरागरूप   मनु   मोरा ।
थकित होत जिमि  चंद चकोरा ॥
इन्हहि बिलोकत अति अनुरागा ।
बरबस ब्रह्मसुखहि  मन  त्यागा ॥
                              (मानस, बाल २१६ । २-३)

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘मेरे तो गिरधर गोपाल’ पुस्तकसे