(गत ब्लॉगसे आगेका)
सर्वथा पूर्ण होते हुए भी भगवान् शंकरके मनमें भगवल्लीला सुनानेकी
लालसा होती है और जगज्जननी पार्वतीके मनमें सुननेकी लालसा होती है । भगवान् शंकर कैलासको
छोड़कर यशोदाजीके पास आते हैं और प्रार्थना करते हैं कि मैया ! एक बार अपने लालाका मुख
तो दिखा दे ! जब वे सतीजीके साथ कैलास जा रहे थे,
तब भी मार्गमें भगवान् श्रीरामका दर्शन करके उनकी विचित्र दशा
हो गयी‒
सतीं सो दसा संभु कै देखी ।
उर उपजा संदेहु
बिसेषी
॥
संकरु जगतबंद्य
जगदीसा ।
सुर नर मुनि सब नावत सीसा ॥
तिन्ह नृपसुतहि कीन्ह
परनामा ।
कहि सच्चिदानंद परधामा ॥
भए मगन छबि तासु बिलोकी
।
अजहुँ प्रीति उर रहति न रोकी ॥
इस प्रकार सनकादि, जनक, भगवान् शंकर आदि सभीका स्वाभाविक ही भगवान्की तरफ खिंचाव होता
है । इस खिंचावका नाम ही प्रेम है । श्रीमद्भागवतमें आया है‒
आत्मारामाश्च मुनयो निर्ग्रन्था अप्युरुक्रमे ।
कुर्वन्त्यहैतुकीं भक्तिमित्थम्भूतगुणो हरिः ॥
(१ । ७ । १०)
‘ज्ञानके द्वारा जिनकी चिज्जडग्रन्थि कट गयी है, ऐसे आत्माराम मुनिगण भी भगवान्की निष्काम भक्ति किया करते हैं; क्योंकि भगवान्के गुण ही ऐसे हैं कि वे प्राणियोंको अपनी ओर खींच लेते हैं ।’
कोई कमी भी न हो और प्रेमकी भूख भी हो‒यह प्रेमकी
अनिर्वचनीयता है । सत्संगमें लगे
हुए साधकोंका यह अनुभव भी है कि प्रतिदिन सत्संग सुनते हुए, भगवान्की लीलाएँ सुनते
हुए, भजन-कीर्तन करते और सुनते हुए भी न तो उनसे तृप्ति होती है और न उनको छोड़नेका
मन ही करता है । उनमें प्रतिदिन नया-नया रस मिलता है,
जिसमें भूतकालका रस फीका दीखता है और वर्तमानका रस विलक्षण दीखता
है[*]
। इस प्रकार प्रेममें पूर्णता भी है और अभाव भी है‒यह प्रेमकी
अनिर्वचनीयता है । ज्ञानमें तो स्वरूपमें स्थिति होती है,
जिससे ज्ञानीको सन्तोष हो जाता है‒‘आत्मन्येव च सन्तुष्टः’ (गीता
३ । १७); परन्तु प्रेममें न स्थिति होती है और न सन्तोष होता है, प्रत्युत
नित्य-निरन्तर वृद्धि होती रहती है ।
वास्तवमें प्रेमका निर्वचन (वर्णन) किया ही नहीं जा सकता । अगर
उसका निर्वचन कर दें तो फिर वह अनिर्वचनीय कैसे रहेगा
?
डूबै सो बोलै नहीं, बोलै सो अनजान ।
गहरो प्रेम-समुद्र कोउ डूबै चतुर सुजान ॥
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘मेरे तो गिरधर गोपाल’ पुस्तकसे
जीवनमुक्त महामुनि जेऊ । हरि गुन सुनहिं
निरंतर तेऊ ॥
(मानस,
उत्तर॰ ५३ । १)
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