(गत ब्लॉगसे आगेका)
भगवान्के ही समग्ररूपका एक अंश अथवा ऐश्वर्य ब्रह्म है‒‘ते ब्रह्म तद्विदुः’ (गीता
७ । २९), ‘ब्रह्मणो हि प्रतिष्ठाहम्’ (गीता
१४ । २७) । समग्ररूप (समग्रम्)
विशेषण है और भगवान-(माम्) विशेष्य हैं‒‘असंशयं समग्रं मां यथा ज्ञास्यसि तच्छणु’ (गीता
७ । १) । इसी तरह भगवान्ने अधियज्ञ
(अन्तर्यामी) को भी अपना स्वरूप बताया है‒‘अधियज्ञोऽहमेवात्र देहे’ (गीता
८ । ४) । अतः ब्रह्म विशेषण है और
अन्तर्यामी भगवान् विशेष्य हैं । इसलिये ज्ञानीका सम्बन्ध विशेषणके साथ होता है और
भक्तका सम्बन्ध विशेष्यके साथ होता है । दूसरे शब्दोंमें, ज्ञानीका
सम्बन्ध ऐश्वर्यके साथ होता है और भक्तका सम्बन्ध ऐश्वर्यवान्के साथ होता है ।
ज्ञानीकी तो ब्रह्मसे ‘तात्त्विक एकता’ होती है, पर भक्तकी भगवान्के साथ ‘आत्मीय एकता’ होती है । इसलिये भगवान् कहते हैं‒‘ज्ञानी त्वात्मैव मे मतम्’ (गीता
७ । १८) ‘ज्ञानी तो मेरी आत्मा ही है‒ऐसा मेरा मत है ।’ यहाँ ‘ज्ञानी’ शब्द तत्त्वज्ञानीके लिये नहीं आया है,
प्रत्युत ‘सब कुछ भगवान् ही हैं’‒इसका अनुभव करनेवाले ज्ञानी अर्थात्
शरणागत भक्तके लिये आया है‒‘वासुदेवः सर्वम् इति ज्ञानवान् मां प्रपद्यते’ (गीता
७ । १९) । ज्ञानी (तत्त्वज्ञानी)
की ‘तात्त्विक एकता’ में तो जीव और ब्रह्ममें अभेद हो जाता है तथा एक तत्त्वके सिवाय
कुछ नहीं रहता । परन्तु भक्तकी ‘आत्मीय एकता’ में जीव और भगवान्में अभिन्नता हो जाती है । अभिन्नतामें भक्त और भगवान् एक होते हुए भी प्रेमके लिये दो हो
जाते हैं ।
यद्यपि भगवान् सर्वथा पूर्ण हैं,
उनमें किंचिन्मात्र भी अभाव नहीं है,
फिर भी वे प्रेमके भूखे हैं‒‘एकाकी न रमते’ बृहदारण्यक॰ १ । ४ । ३) । इसलिये भगवान् प्रेम-लीलाके लिये श्रीजी और कृष्णरूपसे दो
हो जाते हैं‒
येयं राधा यश्च कृष्णो रसाब्धि-
र्देहश्चैकः क्रीडनार्थं
द्विधाभूत् ।
(राधातापनीयोपनिषद्)
वास्तवमें श्रीजी कृष्णसे अलग नहीं होतीं,
प्रत्युत कृष्ण ही प्रेमकी वृद्धिके लिये श्रीजीको अलग करते
हैं । तात्पर्य है कि प्रेमकी प्राप्ति होनेपर भक्त भगवान्से अलग नहीं होता,
प्रत्युत भगवान् ही प्रतिक्षण वर्धमान प्रेमके लिये भक्तको
अलग करते हैं । इसलिये प्रेम प्राप्त होनेपर भक्त और भगवान‒दोनोंमें
कोई छोटा-बड़ा नहीं होता । दोनों ही एक-दूसरेके भक्त और दोनों ही एक-दूसरेके इष्ट होते
है । तत्वज्ञानसे पहलेका भेद (द्वैत) तो अज्ञानसे होता है,
पर तत्वज्ञानके बादका (प्रेमका) भेद भगवान्की इच्छासे होता
है ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘मेरे तो गिरधर गोपाल’ पुस्तकसे
|