हे नाथ ! अब तो आपको हमारेपर कृपा करनी ही पड़ेगी । हम भले-बुरे कैसे ही हों, आपके
ही बालक हैं । आपको छोड़कर हम कहाँ जायँ
? किससे बोलें ? हमारी
कौन सुने ?
संसार तो सफा जंगल है । उससे कहना अरण्यरोदन (जंगलमें रोना)
है । आपके सिवाय कोई सुननेवाला नहीं है । महाराज ! हम किससे कहें
? हमारेपर किसको दया आती है
? अच्छे-अच्छे लक्षण हों तो दूसरा
भी कोई सुन ले । हमारे-जैसे दोषी, अवगुणीकी बात कौन सुने
? कौन अपने पास रखे
? हे गोविन्द-गोपाल ! यह तो आप
ही हैं, जो गायों और बैलोंको भी अपने पास रखते हैं,
चारा देते हैं । हम तो बस,
बैलकी तरह ही हैं ! बिलकुल जंगली आदमी हैं ! आप ही हमें निभाओगे
। और कौन है, किसकी हिम्मत है कि हमें अपना ले
? ऐसी शक्ति भी किसमें है
? हम किसीको क्या निहाल करेंगे
? हमें अपनाकर भी कोई क्या करेगा
? हमें रोटी दे,
कपड़ा दे, मकान दे, खर्चा करे, और हमारेसे क्या मतलब सिद्ध होगा
? ऐसे निकम्मे आदमीको कौन सँभाले
? कोई गुण-लक्षण हों तो सँभाले
। यह तो आप दया करते हैं, तभी काम चलता है, नहीं तो कौन परवाह करता है
?
हे प्रभो ! थोड़ी-सी योग्यत आते ही हमें अभिमान हो
जाता है ! योग्यता तो थोड़ी
होती है, पर मान लेते हैं कि हम तो बहुत बड़े हो गये,
बड़े योग्य बन गये, बड़े भक्त बन गये, बड़े वक्ता बन गये, बड़े चतुर बन गये, बड़े होशियार बन गये,
बड़े विद्वान् बन गये,
बड़े त्यागी, विरक्त बन गये ! भीतरमें यह अभिमान भरा है । हे नाथ ! आपकी ऐसी बात सुनी है कि आप अभिमानसे
द्वेष करते हो और दैन्यसे प्रेम करते हो ।[*]
अगर आपको अभिमान सुहाता नहीं है तो फिर उसको मिटा दो,
दूर कर दो । बालक कीचड़से सना हुआ हो और गोदीमें जाना चाहता हो
तो माँ ही उसको धोयेगी और कौन धोयेगा ? क्या बालक खुद स्नान करके आयेगा,
तब माँ उसको गोदीमें लेगी
? आपको हमारी अशुद्धि नहीं सुहाती
तो फिर कौन साफ करेगा ? आपको ही साफ करना पड़ेगा महाराज !
हे नाथ ! हमारे सब कुछ आप ही हो । आपके सिवाय और
कौन है जो हमारे-जैसेको गले लगाये ?
इसलिये हे प्रभो ! अपना जानकर हमारेपर कृपा करो । एक मारवाड़ी
कहावत है‒‘गैलो गूँगो बावलो,
तो भी चाकर रावलो ।’
हम कैसे ही हैं, आपके ही हैं । आप अपनी दयासे ही हमें सँभालो,
हमारे लक्षणोंसे नहीं । जिन भरतजीकी रामजीसे भी ज्यादा महिमा
कही गयी है, वे भी कहते हैं‒
जौं करनी समुझै प्रभु मोरी ।
नहिं निस्तार कलप सत कोरी ॥
जन अवगुन प्रभु मान
न काऊ ।
दीन बंधु अति मृदुल सुभाऊ
॥
(मानस, उत्तर॰ १ । ३)
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘मेरे तो गिरधर गोपाल’ पुस्तकसे
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