।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि
माघ शुक्ल त्रयोदशी, वि.सं.२०७२, शनिवार
प्रार्थना


(गत ब्लॉगसे आगेका)
आपके ऐसे मृदुल स्वभावको सुनकर ही आपके सामने आनेकी हिम्मत होती है । अगर अपनी तरफ देखें तो आपके सामने आनेकी हिम्मत ही नहीं होती । आपने वृत्रासुर, प्रह्लाद, विभीषण, सुग्रीव, हनुमान्, गजेन्द्र, जटायु, तुलाधार वैश्य, धर्मव्याध, कुब्जा, ब्रजकी गोपियाँ आदिका भी उद्धार कर दिया, यह देखकर हमारी हिम्मत होती है कि आप हमारा भी उद्धार करेंगे ।[*] जैसे अत्यन्त लोभी आदमी कूड़े-कचड़ेमें पड़े पैसेको भी उठा लेता है, ऐसे ही आप भी कूड़े-कचड़ेमें पड़े हम-जैसोंको उठा लेते हो । थोड़ी बातसे ही आप रीझ जाते होतुम्ह रीझहु सनेह सुठि थोरें’ (मानस, बाल ३४२ । २) । कारण कि आपका स्वभाव है‒

रहति न प्रभु चित चूक किए की ।
करत सुरति   सय बार हिए की ॥
                                (मानस, बाल २९ । ३)

अगर आपका ऐसा स्वभाव न हो तो हम आपके नजदीक भी न आ सकें; नजदीक आनेकी हिम्मत भी न हो सके ! आप हमारे अवगुणोंकी तरफ देखते ही नहीं । थोड़ा भी गुण हो तो आप उस तरफ देखते हो । वह थोड़ा भी आपकी दृष्टिसे है । हे नाथ ! हम विचार करें तो हमारेमें राग-द्वेष, काम-क्रोध, लोभ-मोह, अभिमान आदि कितने ही दोष भरे पड़े हैं । हमारेसे आप ज्यादा जानते हो, पर जानते हुए भी आप उनको मानते नहींजन अवगुन प्रभु मान न काऊ’, इसीसे हमारा काम चलता है । प्रभो ! कहीं आप देखने लग जाओ कि यह कैसा है, तो महाराज ! पोल-ही-पोल निकलेगी ।

हे नाथ ! बिना आपके कौन सुननेवाला है ? कोई जाननेवाला भी नहीं है ! हनुमान्‌जी विभीषणसे कहते हैं कि मैं चंचल वानरकुलमें पैदा हुआ हूँ । प्रातः काल जो हमलोगोंका नाम भी ले ले तो उस दिन उसको भोजन न मिले ! ऐसा अधम होनेपर भी भगवान्‌ने मेरेपर कृपा की[†], फिर तुम तो पवित्र ब्राह्मणकुलमें पैदा हुए हो ! कानोंसे ऐसी महिमा सुनकर ही विभीषण आपकी शरणमें आये और बोले‒

श्रवन सुजसु सुनि आयउँ प्रभु भंजन भव भीर ।
त्राहि त्राहि आरति हरन सरन सुखद रघुबीर ॥
                                            (मानस, सुन्दर ४५)

जो आपकी शरणमें आ जाता है, उसकी आप रक्षा करते हो, उसको सुख देते हो, यह आपका स्वभाव है‒

         ऐसो को उदार जग माहीं ।
        बिनु सेवा जो द्रवै दीन पर, राम सरिस कोउ नाहीं ॥
                                              (विनयपत्रिका १६२)

यहि दरबार दीनको आदर, रीति सदा चलि आई ।
                                         (विनयपत्रिका १६५ । ५)

हरेक दरबारमें दीनका आदर नहीं होता । जबतक हमारे पास कुछ धन-सम्पत्ति है, कुछ गुण है, कुछ योग्यता है तभीतक दुनिया हमारा आदर करती है । दुनिया तो हमारे गुणोंका आदर करती है, हमारा खुदका (स्वरूपका) नहीं । परन्तु आप हमारा खुदका आदर करते हो, हमें अपना अंश मानते होममैवांशो जीवलोके’ (गीता १५ । ७), सब मम प्रिय सब मम उपजाए’ (मानस, उत्तर ८६ । २) । हमें अपना अंश मानते ही नहीं, स्पष्टतया जानते हो और अपना जानकर कृपा करते हो ।

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘मेरे तो गिरधर गोपाल’ पुस्तकसे


[*] सठ सेवक  की  प्रीति  रुचि  रखिहहिं  राम  कृपालु ।
   उपल किए जलजान जेहिं सचिव सुमति कपि भालु ॥
   प्रभु  तरु  तर कपि  डार  पर  ते  किए  आपु समान ।
   तुलसी  कहूँ    राम   से    साहिब    सीलनिधान ॥
                                           (मानस, बाल २८-२९)

[†] कहहु कवन मैं परम कुलीना । कपि चंचल सबहीं बिधि हीना ॥
   प्रात लेइ जो नाम हमारा ।    तेहि दिन ताहि न मिलै अहारा ॥
अस मैं अधम सखा     सुनु मोहू पर रघुबीर ।
कीन्ही कृपा सुमिरि गुन भरे बिलोचन नीर ॥
                                                (मानस, सुन्दर ७)