।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि
माघ शुक्ल चतुर्दशी, वि.सं.२०७२, रविवार
प्रार्थना


(गत ब्लॉगसे आगेका)
हमारे अवगुणोंकी तरफ आप देखते ही नहीं । बच्चा कैसा ही हो, कुछ भी करे, पर ‘अपना है’‒यह जानकर माँ कृपा करती है, नहीं तो मुफ्तमें कौन आफत मोल ले महाराज ?

हे नाथ ! जो कुछ भी हमें मिलता है, आपकी कृपासे ही मिलता है । परन्तु उसको हम अपना मान लेते हैं कि यह तो हमारा ही है । यह आपकी खास उदारता और हमारी खास भूल है । महाराज ! आपकी देनेकी रीति बड़ी विलक्षण है ! सब कुछ देकर भी आपको याद नहीं रहता कि मैंने कितना दिया है ? आपके अन्तःकरणमें हमारे अवगुणोंकी छाप ही नहीं पड़ती । आपका अन्तःकरणरूपी कैमरा कैसा है, इसको आप ही जानते हो ! उसमें अवगुण तो छपते ही नहीं, गुण-ही-गुण छपते हैं । ऐसा आपका स्वभाव है ! सिवाय आपमें अपनेपनके और हमारे पास क्या है महाराज ! आप हमें अपना जानते हैं, मानते हैं, स्वीकार करते हैं तभी काम चलता है नाथ ! नहीं तो बड़ी मुश्किल हो जाती ! हम जी भी नहीं सकते थे ! केवल आपकी कृपाका ही आसरा है, तभी जीते हैं‒

आप कृपा को आसरो, आप कृपा को जोर ।
आप बिना दीखे नहीं, तीन लोक में और ॥

कृपा करके भी आपकी कृपा कभी तृप्त नहीं होतीजासु कृपा नहि कृपाँ अघाती’ (मानस, बाल २८ । २) ! ऐसी कृपाके कारण ही आप कृपा कर रहे हो ! आप हमारे भीतरकी सब बातें पूर्णतया जानते हो, पर जानते हुए भी उधर दृष्टि नहीं डालते और ऐसा बर्ताव करते हो कि मानो आपको पता ही नहीं, आप जानते ही नहीं ! आपकी कृपा ही आपको मोहित कर देती है । आप अपने ही गुणोंसे मोहित हो जाते हो । आप अपना किया हुआ उपकार ही भूल जाते हो । अपनी दी हुई वस्तुको भी भूल जाते हो । देते तो आप हो, पर हम मान लेते हैं कि यह तो हमारी ही है ! ऐसे कृतज्ञ, गुणचोर हैं हम तो महाराज ! पूत कपूत हो चाहे सपूत हो, पूत तो है ही । पूत कभी अपूत नहीं हो सकता । आपने गीतामें कहा है कि जीव सदासे मेरा ही अंश है‒ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः’ । अतः अपना पूत जानकर कृपा करो ।

हे प्रभो ! हम आपके क्या काम आ सकते हैं ? क्या आपका कोई काम अड़ा हुआ है, जो हमारेसे निकलता हो ? क्या हमारी योग्यता आपके कोई काम आ सकती है ? यह तो केवल हमारा अभिमान बढ़ानेमें काम आती है । आपकी दी हुई चीजको हम अपनी मान लेते हैं और अपनी मान करके अभिमान कर लेते हैं‒ऐसे कृतघ्न हैं हम ! फिर भी आप आँखें मीच लेते हो । आप उधर खयाल ही नहीं करते । आपके ऐसे स्वभावसे ही तो हम जी रहे हैं ! हे नाथ ! हम आपसे क्या कहें ? हमारे पास कहनेलायक कोई शब्द नहीं है, कोई योग्यता नहीं है । आप जंगलमें रहनेवाले किरातोंके वचन भी ऐसे सुनते हो, जैसे पिता अपने बालककी तोतली वाणी सुनता है‒

बेद बचन  मुनि  मन  अगम   ते प्रभु करुना ऐन ।
बचन किरातन्ह के सुनत जिमि पितु बालक बैन ॥
                                         (मानस, अयोध्या १३६)

इसी तरह हे नाथ ! हमें कुछ कहना आता नहीं । हम तो बस इतना ही जानते हैं कि जिसका कोई नहीं होता,उसके आप होते हो‒

बोल न जाणूं कोय अल्प बुद्धि मन वेग तें ।
नहिं जाके हरि होय या तो मैं जाणूं सदा ॥
                                          (करुणासगर ७४)

नारायण !     नारायण !!     नारायण !!!

‒‘मेरे तो गिरधर गोपाल’ पुस्तकसे