(गत ब्लॉगसे आगेका)
भगवान्ने कहा है‒
अपि चेत्सुदुराचारो भजते मामनन्यभाक् ।
साधुरेव स मन्तव्यः सम्यग्व्यवसितो हि सः ॥
(गीता ९ । ३०)
साधन करनेवाला सदाचारी होता है । पर सुदुराचारी‒सांगोपांग दुराचारी
भी अन्यका भजन न करके, अन्यका आश्रय न रखकर भजन करता है तो उसे साधु मान लेना चाहिये‒‘साधुरेव स मन्तव्यः’‒यह भगवान्की आज्ञा है । जब भगवान् उसे सुदुराचारी स्वीकार करते
है तो उसे साधु कैसे मानें ? तो कहा‒‘सम्यग्व्यवसितो हि सः’
अर्थात् उसने निश्चय पक्का कर लिया कि केवल परमात्माकी तरफ ही चलना है । यह सम्पूर्ण साधनोंकी मूलभूत साधना है । इससे अपने-आप सब ठीक होगा
। जैसे किसीके मनमें निश्चय हो जाय कि मुझे बदरीनारायण जाना है तो कैसे जाना
है ? रास्ता कैसा है ? कितना है ? आदि बातें स्वतः पैदा होंगी । स्वतः जिज्ञासा पैदा होगी । खोज
करनेपर बतानेवाले और सहायता करनेवाले भी मिल जायेंगे । ज्यों-ज्यों चलेगा,
त्यों-त्यों आगे चलनेका सामान भी मिलेगा और उपाय भी कर लेगा
। सब कुछ हो जायगा । तो एक निश्चय हो जानेसे सब काम बन जाता है । ऐसा निश्चय कब होता है ? जब
यहाँकी अस्थिरता देखता है । परन्तु भूलसे स्थिरता देखकर यहाँ ही डेरा लगा देता है कि बस,
यहाँ ही रहना है । पर अभीतक जितने आये,
कोई यहाँ नहीं रहा । अच्छे-अच्छे महात्मा, पीर,
औलिया, संत हो गये; वे भी चले गये । भगवान्ने भी अवतार लिये पर हमारे इस मृत्युलोकके
रिवाजको नहीं तोड़ा । वे भी चले गये । यहाँ रहनेकी रिवाज नहीं
है, इसलिये यह जाने-ही-जानेवाला है । अगर यह ठीक जागृति
रहे तो बहुत ही लाभ है ।
जैसे कार्यालयमें काम करने जाते हैं तो भीतर यह बात बैठी रहती
है कि कार्य समाप्त होते ही घर चल देंगे । इस बातको याद नहीं करते,
इसका चिन्तन नहीं करते,
इसका जप नहीं करते । परन्तु बात भीतर जमी रहती है । इस तरह जो
संसारमें रहनेकी बात है, वह बिलकुल उलटी बात है और यहाँ न रहनेकी
बात बिलकुल सही बात है । सही बातको मान लें । इसमें कुछ करना नहीं पड़ता । इसे निर्विकल्परूपसे
मान लेनेपर फिर यह विचारका विषय नहीं रहता । इस बातको मान लें तो बड़े भारी लाभकी बात
है । ये जितने साधन है, सब इसके ऊपर आधारित हैं । यह सबकी आधारशिला (नींव)
है । आस्तिक हो या नास्तिक,
कोई क्यों न हो, यह सबके लिये सही बात है और ठीक अनुभवकी बात है । ऐसा नहीं कि
शास्त्रोंमें लिखा है, मान लो; तो जिसकी श्रद्धा होगी,
वह मान लेगा और जिसकी श्रद्धा नहीं होगी,
वह नहीं मानेगा । इसमें तो श्रद्धाकी भी जरूरत नहीं है । यह
तो प्रत्यक्ष और सीधी बात है कि हमारा बालकपना चला गया । उसे ढूँढें तो वह मिलता नहीं
। ऐसा ही प्रवाह अभी भी चल रहा है ।
(शेष
आगेके ब्लॉगमें)
‒‘साधकोंके प्रति’पुस्तकसे
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