(गत ब्लॉगसे आगेका)
एक परमात्मतत्त्वकी प्राप्तिके लिये ही हमारा आना हुआ है । उसीको
प्राप्त करना है । पर यह तब होगा,
जब इस संसारको अप्राप्त मानें । संसार प्राप्त नहीं हुआ है ।
हम अचल है‒‘नित्यः सर्वगतः स्थाणुरचलोऽयं सनातनः’ ॥ (गीता
२ । २४) और यह सब चल है
। चलके साथ मिलनेसे अपनेमें अस्थिरता मालूम देती है । स्थिर होते हुए भी अपनी स्थिरताका
अनुभव नहीं होता । जैसे, हम गाड़ीमें
जा रहे है और गाड़ी किसी छोटे स्टेशनपर ठहर गयी;
क्योंकि सामनेसे दूसरी गाड़ी आ रही है,
वह गाड़ी आकर दूसरी लाइनमें ठहर जाती है, हम उस गाड़ीकी तरफ देखते
है, वह गाड़ी चल पड़ती है तो मालूम होता है कि हम चल रहे है,
जबकि हमारी गाड़ी स्थिर है,
ऐसे ही यह शरीर-संसाररूपी गाड़ी चल रही है और उधर दृष्टि रहनेसे
हम देखते हैं कि हम जवान हो रहे है, हम बूढ़े हो रहे है आदि । ऐसा दीखता है कि हम जा रहे है पर जा
रहा है शरीर । इस प्रकार शरीर संसारको तो स्थिर मान लिया
और अपनेको जानेवाला मान लिया । शरीर-संसारको स्थिर माननेसे द्वन्द्व पैदा होते
हैं और द्वन्द्वोंसे मोह पैदा होता है । इस वास्ते जो द्वन्द्वमोहसे रहित होते हैं
वे दृढ़वती होकर भगवान्का भजन करते है‒
ते द्वन्द्वमोहनिर्मुक्ता भजन्ते मां दृढव्रताः ॥
(गीता ७ । २८)
राग-द्वेषादि द्वन्द्वोंसे रहित पुरुष सुखपूर्वक संसार-बन्धनसे
मुक्त हो जाता है‒
निर्द्वन्द्वो हि महाबाहो सुखं बन्धात्प्रमुच्यते ॥
(गीता ५ । ३)
द्वन्द्वैर्विमुक्ताः सुखदुःखसंज्ञैर्गच्छन्त्यमूढाः
पदमव्ययं तत् ॥
(गीता १५ । ५)
इसलिये भगवान् आज्ञा देते है कि तुम निर्द्वन्द्व हो जाओ‒
त्रैगुण्यविषया वेदा निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन
।
निर्द्वन्द्वो नित्यसत्त्वस्थो निर्योगक्षेम आत्मवान् ॥
(गीता २ । ४५)
हम निर्द्वन्द्व कब होंगे ? जब शरीर-संसारको अस्थिर मानेंगे
तब । अस्थिर माननेसे फिर राग-द्वेष नहीं होंगे ।
अरब रात मिलिबे को निसिदिन,
मिलेइ रहत मनु कबहुँ
मिलै ना ।
‘भगवतरसिक’ रसिक की बातैं,
रसिक बिना कोउ समुझि सकै ना ॥
नारायण ! नारायण
!! नारायण !!!
‒‘साधकोंके
प्रति’पुस्तकसे
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