(गत
ब्लॉगसे आगेका)
दुर्लभ चीज तो यही है कि ऐसा सुख, ऐसा
आनन्द प्राप्त हो, जिसमें दुःखका लेश भी न हो और आनन्दमें कोई कमी भी
न हो । ऐसे तत्त्वकी प्राप्ति करना ही मनुष्य-जन्मका ध्येय है । इसलिये मनुष्यको सबसे पहले यह पक्का विचार कर लेना चाहिये कि
उस तत्त्वको प्राप्त करनेके लिये ही मैं आया हूँ और उसको प्राप्त करना ही मेरा काम
है । जो अधूरा हो और नष्ट होनेवाला हो, वह मेरेको नहीं लेना है । धन कमाऊँ तो अधूरा रह जायगा और साथमें
नहीं रहेगा । मान-बड़ाई प्राप्त कर लूँ तो वह भी अधूरी रह जायगी और साथमें नहीं रहेगी
। विद्या, योग्यता, अधिकार, पद आदि जो कुछ भी मिलेगा,
वह सब अधूरा मिलेगा और साथ रहेगा नहीं । ये अधूरी और साथमें
न रहनेवाली चीजें मेरेको नहीं चाहिये । ऐसा पक्का विचार हो जाय और केवल उस तत्त्वकी
प्राप्ति चाहे, इसको अनन्यता कहते हैं ।
पहले अपनी अहंता-(मैं-पन-) में अनन्यता होनी चाहिये
कि मैं तो केवल उस तत्त्वको ही चाहता हूँ । जब अहंतामें यह चीज हो जायेगी, तब अनन्य भक्ति होगी । मनुष्य यही सोचता है कि मैं काम करके
कर्ता बनूँगा, भक्ति करके भक्त बनूँगा,
ज्ञान प्राप्त करके ज्ञानी बनूँगा । यह बात भी ठीक है;
पर ठीक होते हुए भी इसमें एक कमी है । वह कमी यह है कि ‘मैं साधन करके साधक बनूँगा’
फिर सिद्ध बनूँगा तो इसमें देरी लगेगी अर्थात् क्रियाओंके बदलनेसे
भी अहंता बदलती है पर इसमें देरी लगेगी । परन्तु मैं साधक
हूँ, मेरेको तो केवल उस तत्त्वको ही प्राप्त करना है, दुनिया
चाहे उथल-पुथल हो जाय, मेरेको किसीसे कुछ भी मतलब नहीं, मैं
तो केवल उसी एक (तत्त्व-) का ही जिज्ञासु हूँ‒यह चीज जब अहंतामें आ जायगी अर्थात् जब
ऐसा पक्का विचार हो जायगा तो उसकी सब क्रियाएँ अपने-आप बदल जायँगी । फिर वह कभी भी
अपने ध्येयसे, उद्देश्यसे विचलित नहीं हो सकेगा । उसको लाखों-करोड़ों रुपये मिल जायँ,
बड़ा आदर-सत्कार हो जाय,
बड़ी वाह-वाह हो जाय,
बड़ा भारी पद मिल जाय,
सम्राट् बन जाय तो भी वह विचलित नहीं हो सकेगा;
क्योंकि वह यही समझता है कि इनको प्राप्त करना मेरा ध्येय नहीं
है । अमुक-अमुक कर्मके करनेसे स्वर्ग मिलेगा,
ब्रह्मलोक मिलेगा, बड़ा भारी सुख मिलेगा‒ऐसा लालच दिया जाय तो भी वह विचलित नहीं
हो सकेगा; क्योंकि वह उसको चाहता ही नहीं ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘साधकोंके प्रति’ पुस्तकसे
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