(गत
ब्लॉगसे आगेका)
जैसे आजके जमानेमें जो शुद्ध खान-पानवाले आदमी है,
उनसे कोई यह कहे कि ‘यह मांस बहुत बढ़िया है’
तो वे यही कहेंगे कि भाई,
हमें लेना नहीं है । ‘ये अण्डे बहुत बढ़िया हैं पर हमें लेना नहीं है ।’
‘इस जातिकी मछली बहुत बढ़िया है’
। ‘अरे ! क्यों हल्ला करता है,
हमें लेना ही नहीं है ।’
ऐसे ही एक निश्चयवाले साधकसे कोई कहे कि ‘भाई ! संसारका यह सुख बहुत बढ़िया है,
आरामवाली ये चीजें बहुत बढ़िया है’
तो वह यही कहेगा कि ‘भाई ! हम इस सुख-आरामके ग्राहक नहीं हैं । हमें यह सुख-आराम
भोगना ही नहीं है’ ।
तुम ऐसा काम करोगे तो तुम्हें इतना लाभ हो जायगा,
तुम्हारे पास इतना संग्रह हो जायगा,
इतना रुपया इकट्ठा हो जायगा’
।
‘पर हमें संग्रह करना ही नहीं है’
।
‘हम तुम्हें इतना रुपया दे देंगे,
इतना सोना-चाँदी दे देंगे,
इतने हीरे दे देंगे,
तुम्हें ऊँचा पद दे देंगे,
मिनिस्टर बना देंगे’
।
‘कृपा करो बाबा ! हमें यह गन्दी चीज लेनी ही नहीं है ।’
तात्पर्य है कि बढ़िया-घटिया जो कुछ हो,
हमें लेना ही नहीं है । हमें तो एक अलौकिक परमात्मतत्त्वको लेना
है । जिसको मुक्ति, कल्याण, प्रेम-प्राप्ति कहते है,
हमें वह लेना है । जिस तत्त्वको प्राप्त करनेके बाद कुछ भी प्राप्त
करना बाकी नहीं रहता और दुःख वहाँ पहुँचता नहीं,
हमें तो वह तत्त्व लेना है । और कुछ हमें लेना है ही नहीं ।
‘सब ऐसे कैसे हो सकते है ?’
ऐसे सब हो सकते है; क्योंकि
मनुष्यमात्र उस तत्त्वका अधिकारी है । वह किसी वर्णमें हो, किसी
आश्रममें हो, किसी सम्प्रदायमें हो, किसी
देशमें हो, किसी वेशमें हो, कैसा
ही क्यों न हो, वह उस परमात्मतत्त्वकी प्राप्तिका पूरा अधिकारी है
। परन्तु संसारके अधिकारी सब
पूरे नहीं है, धनके अधिकारी सब पूरे नहीं है,
मान-बड़ाई अधिकारी सब पूरे नहीं हैं । हाँ,
इनका थोड़ा टुकड़ा-टुकड़ा मिल सकता है पर किसीको भी पूरा नहीं मिलेगा
और वह तत्त्व सबको पूरा मिलेगा, उसका टुकड़ा नहीं होगा । अन्य योनियोंमें इस तत्त्वको प्राप्त
करनेकी योग्यता नहीं है । मानव-शरीरमें ही भगवान्ने वह योग्यता दी है,
जिससे सभी उस तत्त्वको प्राप्त कर सकते है ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘साधकोंके प्रति’ पुस्तकसे
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