परमात्मतत्त्व समान रूपसे सबमें परिपूर्ण है । सबमें परिपूर्ण
होनेपर भी विलक्षणता यह है कि वह ज्यों-का-त्यों रहता है,
जबकि संसारमें प्रतिक्षण परिवर्तन होता है ।
गीतामें आया है‒
प्रकृतिं पुरुषं चैव विद्ध्यनादी उभावपि ।
विकारांश्च गुणांश्चैव विद्धि प्रकृतिसम्भवान् ॥
(१३ । १९)
‘प्रकृति और पुरुष दोनोंको ही तुम अनादि समझो
और विकारोंको तथा गुणोंको भी प्रकृतिसे ही उत्पन्न समझो ।’
यद्यपि प्रकृति और पुरुष‒दोनों ही अनादि हैं,
तथापि परिवर्तनशील विकार और प्रकृतिसे ही होते हैं । पुरुष
(जीवात्मा) अपरिवर्तनशील है ।
कार्यकरणकर्तृत्वे
हेतुः प्रकृतिरुच्यते ।
पुरुषः सुखदुःखानां भोक्तृत्वे हेतुरुच्यते ॥
(गीता
१३ । २०)
‘कार्य और करणके द्वारा होनेवाली क्रियाओंको उत्पन्न
करनेमें प्रकृति हेतु कही जाती है और सुख-दुःखोंके भोक्तापनमें पुरुष हेतु कहा जाता
है ।’
पुरुष भोक्तापनमें हेतु तो है,
पर क्रियामें हेतु नहीं है । सभी भोग क्रियाजन्य होते हैं ।
जब पुरुष प्रकृतिमें स्थित होता है, तभी वह भोक्ता होता है‒‘पुरुषः प्रकृतिस्थो
हि भुङ्क्ते प्रकृतिजान्गुणान्’
(गीता १३ । २१) । प्रकृतिसे अलग होनेपर पुरुष भोक्ता नहीं होता । यह पुरुषकी
विलक्षणता है कि देहमें स्थित होता हुआ भी वह देहसे पर है अर्थात् देहसे असंग,
अलिप्त, असम्बद्ध है‒‘देहेऽस्मिन्पुरुषः परः’ (गीता
१३ । २२) । शरीरके साथ
अपनी एकता माननेसे ही वह कर्ता-भोक्ता बनता है,
अन्यथा वह कर्ता-भोक्ता है ही नहीं‒‘शरीरस्थोऽपि कौन्तेय न करोति न लिप्यते’ (गीता
१३ । ३१) । जैसे सूर्य सबको
प्रकाशित करता है, पर वह किसी क्रियाका कर्ता नहीं बनता । सूर्यके प्रकाशमें कोई
वेद पढ़ता है तो सूर्य उस पुण्यका भागी नहीं होता और कोई शिकार करता है तो सूर्य उस
पापका भागी नहीं होता । ऐसे ही पुरुष शरीरके साथ सम्बन्ध
न जोड़े तो वह पाप-पुण्यका भागी नहीं होता ।
जीवात्माकी प्रकृतिके साथ मानी हुई एकता है और परमात्माके साथ
स्वरूपसे एकता है; क्योंकि यह परमात्माका ही अंश है । शरीरके साथ सम्बन्ध जोड़नेसे
यह कर्ता-भोक्ता बनता है और जन्म-मरणमें चला जाता है । अगर यह शरीरके साथ सम्बन्ध न
जोड़े तो मुक्त हो जाता है । वास्तवमें यह मुक्त ही है । यह
स्वतः-स्वाभाविक सबमें परिपूर्ण होते हुए भी अपनेको एक शरीरमें स्थित मान लेता है और
जन्म-मरणके चकरमें पड़ जाता है । अगर यह अपने निर्विकल्प स्वरूपमें स्थित रहे
तो शरीरमें रहता हुआ भी कर्ता-भोक्ता नहीं बनता ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘मेरे तो गिरधर गोपाल’ पुस्तकसे
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