।। श्रीहरिः ।।



आजकी शुभ तिथि
माघ पूर्णिमा, वि.सं.२०७२, सोमवार
माघी पूर्णिमा, माघ-स्नान समाप्त
साधकोंके प्रति-१२



हम सबके अनुभवकी बात है कि यह सब-का-सब दृश्य अदृश्य हो रहा है । यह जो संसार दीख रहा है, यह मिट रहा है । एक क्षण भी इसमें स्थिरता नहीं है । इसमें स्थिरता माननेसे ही राग-द्वेषादि द्वन्द्व होते हैं‒

इच्छाद्वेषसमुत्थेन   द्वन्द्वमोहेन भारत ।
सर्वभूतानि संमोहं सर्गे यान्ति परंतप ॥
                                      (गीता ७ । २७)

इच्छा (राग) और द्वेषसे ही सब द्वन्द्व पैदा होते है । इन द्वन्द्वोंसे मोहित होकर यह जितना भी प्राणी-समुदाय है, यह वास्तविकताको नहीं जानता । इस द्वन्द्वसे ही सम्मोह पैदा होता है । तो इस कारण वह तत्त्वको जान नहीं सकता । अतः राग-द्वेष, हर्ष-शोक पैदा होते है‒नश्वर शरीर और संसारको स्थिर माननेसे, ‘हैऐसा माननेसे । यह सबके अनुभवकी बात है कि ये स्थिर नहीं है । संतोंने कहा है‒

काची काया मन अथिर,    थिर-थिर काम करंत ।
ज्यों-ज्यों नर निधड़क फिरै, त्यों-त्यों काल हसंत ॥

युधिष्ठिरजी महाराजने कहा है‒

अहन्यहनि भूतानि   गच्छन्तीह   यमालयम्  
शेषाः स्थावरमिच्छन्ति किमाश्चर्यमतः परम् ॥
                                       (महा वन ३१३ । ११६)

इससे बढ़कर क्या आश्चर्य होगा कि सब-के-सब अदर्शनमें जा रहे हैं, यमराजके घर जा रहे हैं और इच्छा करते है स्थिरताकी ! जो स्थिरता कभी रहती नहीं और अभी भी स्थिरता है नहीं और कभी भी स्थिरता रहेगी नहीं । यहाँ तो केवल सेवा करनेके लिये आना हुआ है । शरीरसे, मनसे, वाणीसे, पदार्थोंसे, योग्यतासे, पदसे, अधिकारसे औरोंकी सेवा बन जाय, औरोंको सुख हो जाय, औरोंका भला हो जाय, औरोंका हित हो जाय‒यह काम हमें करना है । इसमें बाधा होती है‒संग्रह कर लें और सुख भोगें अर्थात् संग्रह करनेकी और सुख भोगनेकी आसक्ति । भगवान् कहते हैं‒

भोगैश्वर्यप्रसक्तानां         तयापहृतचेतसाम् ।
व्यवसायात्मिका बुद्धिः समाधौ न विधीयते ॥
                                                 (गीता २ । ४४)

भोग और संग्रहकी इच्छा होती है कि सुख भोग लूँ संग्रह कर लूँ । इसी कारण एक परमात्माकी तरफ ही चलना हैयह निश्चय नहीं होता । इस निश्चयमें जितनी शक्ति है, उतनी किसी साधनमें नहीं है । नाम-जप, कीर्तन, सत्संग, स्वाध्याय, तप, तीर्थ, व्रत आदि साधन बड़े श्रेष्ठ है । वास्तवमें यह बात ठीक है । परन्तु भीतरकी जो निश्चयात्मिका बुद्धि है, वह यथार्थ ठीक होती है । उसका बहुत ज्यादा मूल्य होता है ।

    (शेष आगेके ब्लॉगमें)
 ‒‘साधकोंके प्रति’पुस्तकसे