हम सबके अनुभवकी बात है कि यह सब-का-सब दृश्य अदृश्य हो रहा
है । यह जो संसार दीख रहा है, यह मिट रहा है । एक क्षण भी इसमें स्थिरता नहीं है । इसमें स्थिरता
माननेसे ही राग-द्वेषादि द्वन्द्व होते हैं‒
इच्छाद्वेषसमुत्थेन
द्वन्द्वमोहेन भारत ।
सर्वभूतानि संमोहं सर्गे यान्ति परंतप ॥
(गीता ७ ।
२७)
इच्छा (राग) और द्वेषसे ही सब द्वन्द्व पैदा होते है । इन द्वन्द्वोंसे
मोहित होकर यह जितना भी प्राणी-समुदाय है,
यह वास्तविकताको नहीं जानता । इस द्वन्द्वसे ही सम्मोह पैदा
होता है । तो इस कारण वह तत्त्वको जान नहीं सकता । अतः राग-द्वेष, हर्ष-शोक
पैदा होते है‒नश्वर शरीर और संसारको स्थिर माननेसे, ‘है’ ऐसा
माननेसे । यह सबके अनुभवकी
बात है कि ये स्थिर नहीं है । संतोंने कहा है‒
काची काया मन अथिर, थिर-थिर काम करंत ।
ज्यों-ज्यों नर निधड़क फिरै, त्यों-त्यों
काल हसंत ॥
युधिष्ठिरजी महाराजने कहा है‒
अहन्यहनि भूतानि गच्छन्तीह
यमालयम् ।
शेषाः स्थावरमिच्छन्ति किमाश्चर्यमतः परम् ॥
(महा॰ वन॰ ३१३ । ११६)
इससे बढ़कर क्या आश्चर्य होगा कि सब-के-सब अदर्शनमें जा रहे
हैं, यमराजके घर जा रहे हैं और इच्छा करते है स्थिरताकी ! जो स्थिरता कभी रहती नहीं
और अभी भी स्थिरता है नहीं और कभी भी स्थिरता रहेगी नहीं । यहाँ तो केवल सेवा करनेके लिये आना हुआ है । शरीरसे, मनसे, वाणीसे, पदार्थोंसे, योग्यतासे, पदसे, अधिकारसे
औरोंकी सेवा बन जाय, औरोंको सुख हो जाय, औरोंका
भला हो जाय, औरोंका हित हो जाय‒यह काम हमें करना है । इसमें बाधा होती है‒संग्रह कर लें और सुख भोगें अर्थात् संग्रह
करनेकी और सुख भोगनेकी आसक्ति । भगवान् कहते हैं‒
भोगैश्वर्यप्रसक्तानां तयापहृतचेतसाम् ।
व्यवसायात्मिका बुद्धिः समाधौ न विधीयते ॥
(गीता २ । ४४)
भोग और संग्रहकी इच्छा होती है कि सुख भोग लूँ संग्रह कर लूँ
। इसी कारण ‘एक परमात्माकी तरफ ही चलना है’
यह निश्चय नहीं होता । इस निश्चयमें
जितनी शक्ति है, उतनी किसी साधनमें नहीं है । नाम-जप, कीर्तन, सत्संग, स्वाध्याय, तप, तीर्थ, व्रत आदि साधन बड़े श्रेष्ठ है । वास्तवमें यह बात ठीक है । परन्तु
भीतरकी जो निश्चयात्मिका बुद्धि है, वह यथार्थ ठीक होती है । उसका बहुत ज्यादा मूल्य होता है ।
(शेष
आगेके ब्लॉगमें)
‒‘साधकोंके प्रति’पुस्तकसे
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