।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि
माघ कृष्ण एकादशी, वि.सं.२०७२, गुरुवार
षट्‌तिला एकादशी-व्रत (सबका)
मुक्ति स्वाभाविक है


(गत ब्लॉगसे आगेका)
जीवात्मामें निर्लिप्तता स्वाभाविक है और लिप्तता कृत्रिम है । परन्तु निर्लिप्तताकी तरफ उसकी दृष्टि नहीं है । यह मुक्त होता नहीं है, प्रत्युत मुक्त है, पर उस तरफ इसकी दृष्टि नहीं है । जैसे परमात्मा सबमें परिपूर्ण रहते हुए भी कर्ता-भोक्ता नहीं बनते, ऐसे ही सबमें परिपूर्ण रहते हुए भी जीवात्मा कर्ता-भोक्ता नहीं बनता । जीवात्माका परमात्मासे साधर्म्य है‒‘मम साधर्म्यमागताः’ (गीता १४ । २) । यह साधर्म्य स्वतः-स्वाभाविक है ।

उपर्युक्त बातोंसे यह सिद्ध हुआ कि हम अपनेको जो संसारी आदमी मानते हैं कि हम संसारमें तो हैं और परमात्माको प्राप्त करेंगे, ऐसी बात नहीं है । हम परमात्माको प्राप्त हैं, पर उधर ध्यान न होनेसे हम परमात्माको अप्राप्त मानते हैं । मानी हुई बात मिट जाती है तो मुक्तपना स्वतः रह जाता है । तात्पर्य है कि गलत बात न मानें तो मुक्त होना स्वाभाविक है । बद्ध होना अस्वाभाविक है । परन्तु मनुष्योंने भूलसे मान लिया है कि बद्ध होना स्वाभाविक है और मुक्त होना अस्वाभाविक है, इसलिये मेहनत करेंगे, उद्योग करेंगे, तब मुक्त होंगे, अन्यथा बद्ध ही रहेंगे ! मुक्ति स्वाभाविक है, तभी एक बार मुक्त होनेपर फिर पुनः मोह नहीं होता‒‘यज्ज्ञात्वा न पुनर्मोहम्’ (गीता ४ । ३५) । अगर मनुष्य वास्तवमें मोहित (बद्ध) होता तो फिर सदा मोहित ही रहता । इसलिये वास्तवमें मुक्त ही मुक्त होता है ! अगर वह वास्तवमें बद्ध होता तो फिर कभी मुक्त होता ही नहीं । परन्तु मुक्त होता हुआ भी वह अपनेको बद्ध मान लेता है । यह माना हुआ बन्धन मिटनेपर जो मुक्ति स्वतः-स्वाभाविक है, उसका अनुभव हो जाता है ।

बद्धावस्थामें भी जीव वास्तवमें लिप्त नहीं है‒‘शरीरस्थोऽपि कौन्तेय न करोति न लिप्यते’ (गीता १३ । ३१) । बद्धावस्थामें भी वह तटस्थ, अलग है, पर अलगावका अनुभव न करके लिप्तताका अनुभव करता है । इसलिये बद्धपना माना हुआ है और मुक्तपना इसका स्वतः वास्तविक स्वरूप है । जो हमारा वास्तविक स्वरूप है, उसीको जानना है । उसको जाननेपर फिर मोह नहीं होगा ।

बन्धन आगन्तुक है, मुक्ति स्वतः-सिद्ध है । हमने अस्वाभाविकको स्वाभाविक और स्वाभाविकको अस्वाभाविक मान लिया है, इसलिये बँधे हुए रहते हैं । वास्तवमें जड़ और चेतनका सम्बन्ध होना असम्भव है । जैसे अन्धकार और प्रकाश आपसमें नहीं मिल सकते, ऐसे ही जड़ और चेतन आपसमें नहीं मिल सकते । परन्तु चेतनमें यह शक्ति है कि वह जड़को अपने साथ मिला हुआ मान लेता है । चेतन सत्य है, इसलिये वह जो मान्यता कर लेता है, वह भी सत्यकी तरह हो जाती है । यह शक्ति जड़में नहीं है । जड़ने चेतनको अपना नहीं माना है, प्रत्युत चेतनने ही जड़को अपना माना है, तभी वह बद्ध होता है । अगर यह जड़को अपना न माने तो बनावटी बन्धन मिट जायगा और स्वाभाविक मुक्तिका अनुभव हो जायगा । इसलिये मुक्ति सहज है, स्वाभाविक है । बद्धपना बनावटी है, अस्वाभाविक है ।

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘मेरे तो गिरधर गोपाल’ पुस्तकसे