(गत ब्लॉगसे आगेका)
हमारा स्वरूप स्वाभाविक मुक्त है । प्रकृतिमें निरन्तर क्रिया होती है‒सर्गावस्थामें भी और प्रलयावस्थामें
भी । पर स्वरूपमें कभी क्रिया होती ही नहीं । वह है ज्यों ही रहता है । अनन्त-अनन्त-अनन्त
काल बीत जायँ तो भी वह है ज्यों-का-त्यों रहेगा । वह अनेक शरीर धारण करनेपर भी उनसे
अलग रहता है । एक दिनमें कई क्रियाएँ करता है,
पर स्वयं अलग रहता है । अलग रहनेसे ही वह पहली क्रियाको छोड़कर
दूसरी क्रिया पकड़ता है, दूसरीको छोड़कर तीसरी पकड़ता है,
तीसरीको छोड़कर चौथी पकड़ता है । अगर स्वरूपमें भी क्रियाशीलता
होती तो वह सदा एक ही क्रियामें और एक ही शरीरमें रहता । वह पहली क्रियाको छोड़कर दूसरीको
कैसे पकड़ता ? एक शरीरको छोड़कर चौरासी लाख योनियोंके दूसरे शरीरोंमें कैसे
जाता ? सबसे अलग होनेपर भी यह जड़ शरीर,
वस्तु व्यक्ति और क्रियाके साथ सम्बन्ध जोड़कर बँध जाता है ।
बँध जानेके बाद फिर छूटना कठिन हो जाता है‒
जड़ चेतनहि ग्रंथि परि गई ।
जदपि मृषा छूटत कठिनई ॥
(मानस, उत्तर॰ ११७ । २)
वास्तवमें यह बँधा हुआ है ही नहीं । इसलिये मुक्ति
स्वाभाविक है‒यह बात हरेकको मान लेनी चाहिये । बन्धन अस्वाभाविक है,
कृतिसाध्य है । मुक्ति कृतिसाध्य नहीं है ।
गीतामें आया है‒
न हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत् ।
कार्यते ह्यवशः कर्म सर्वः प्रकृतिजैर्गुणैः ॥
(३ । ५)
‘कोई भी मनुष्य किसी भी अवस्थामें क्षणमात्र भी
कर्म किये बिना नहीं रह सकता; क्योंकि प्रकृतिके परवश हुए सब प्राणियोंसे प्रकृतिजन्य
गुण कर्म करवा लेते हैं ।’
‒यह प्रकृतिस्थ पुरुषका वर्णन है । वास्तवमें पुरुष किसी भी अवस्थामें
क्षणमात्र भी कोई कर्म नहीं करता, पर प्रकृतिके साथ सम्बन्ध जोड़नेपर वह किसी भी अवस्थामें क्षणमात्र
भी कर्म किये बिना नहीं रहता । प्रकृतिकी क्रिया कभी मिटती ही नहीं और पुरुष (जीवात्मा)-में
क्रिया लागू होती ही नहीं । यह स्वतः-स्वाभाविक असंग,
निर्लिप्त रहता है । परन्तु प्रकृतिसे सम्बन्ध मानकर इसने मुक्तिको
कृतिसाध्य, उद्योगसाध्य मान लिया है ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘मेरे तो गिरधर गोपाल’ पुस्तकसे
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