।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि
माघ कृष्ण द्वादशी, वि.सं.२०७२, शुक्रवार
मुक्ति स्वाभाविक है


(गत ब्लॉगसे आगेका)
हमारा स्वरूप स्वाभाविक मुक्त है । प्रकृतिमें निरन्तर क्रिया होती है‒सर्गावस्थामें भी और प्रलयावस्थामें भी । पर स्वरूपमें कभी क्रिया होती ही नहीं । वह है ज्यों ही रहता है । अनन्त-अनन्त-अनन्त काल बीत जायँ तो भी वह है ज्यों-का-त्यों रहेगा । वह अनेक शरीर धारण करनेपर भी उनसे अलग रहता है । एक दिनमें कई क्रियाएँ करता है, पर स्वयं अलग रहता है । अलग रहनेसे ही वह पहली क्रियाको छोड़कर दूसरी क्रिया पकड़ता है, दूसरीको छोड़कर तीसरी पकड़ता है, तीसरीको छोड़कर चौथी पकड़ता है । अगर स्वरूपमें भी क्रियाशीलता होती तो वह सदा एक ही क्रियामें और एक ही शरीरमें रहता । वह पहली क्रियाको छोड़कर दूसरीको कैसे पकड़ता ? एक शरीरको छोड़कर चौरासी लाख योनियोंके दूसरे शरीरोंमें कैसे जाता ? सबसे अलग होनेपर भी यह जड़ शरीर, वस्तु व्यक्ति और क्रियाके साथ सम्बन्ध जोड़कर बँध जाता है । बँध जानेके बाद फिर छूटना कठिन हो जाता है‒

जड़ चेतनहि ग्रंथि परि गई ।
जदपि मृषा छूटत कठिनई ॥
                              (मानस, उत्तर ११७ । २)

वास्तवमें यह बँधा हुआ है ही नहीं । इसलिये मुक्ति स्वाभाविक है‒यह बात हरेकको मान लेनी चाहिये । बन्धन अस्वाभाविक है, कृतिसाध्य है । मुक्ति कृतिसाध्य नहीं है ।

गीतामें आया है‒

न हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत् ।
कार्यते ह्यवशः  कर्म   सर्वः  प्रकृतिजैर्गुणैः ॥
                                                   (३ । ५)

‘कोई भी मनुष्य किसी भी अवस्थामें क्षणमात्र भी कर्म किये बिना नहीं रह सकता; क्योंकि प्रकृतिके परवश हुए सब प्राणियोंसे प्रकृतिजन्य गुण कर्म करवा लेते हैं ।’

यह प्रकृतिस्थ पुरुषका वर्णन है । वास्तवमें पुरुष किसी भी अवस्थामें क्षणमात्र भी कोई कर्म नहीं करता, पर प्रकृतिके साथ सम्बन्ध जोड़नेपर वह किसी भी अवस्थामें क्षणमात्र भी कर्म किये बिना नहीं रहता । प्रकृतिकी क्रिया कभी मिटती ही नहीं और पुरुष (जीवात्मा)-में क्रिया लागू होती ही नहीं । यह स्वतः-स्वाभाविक असंग, निर्लिप्त रहता है । परन्तु प्रकृतिसे सम्बन्ध मानकर इसने मुक्तिको कृतिसाध्य, उद्योगसाध्य मान लिया है ।

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘मेरे तो गिरधर गोपाल’ पुस्तकसे