।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि
माघ कृष्ण त्रयोदशी, वि.सं.२०७२, शनिवार
मुक्ति स्वाभाविक है


(गत ब्लॉगसे आगेका)
हम कोई कर्म करें, तभी शरीर काम आता है । कोई भी कर्म न करें तो शरीरका क्या उपयोग है ? शरीरसे परिवारकी, समाजकी अथवा संसारकी सेवा कर सकते हैं । अपने लिये शरीर है ही नहीं । स्थूलशरीरसे कोई काम न करें तो स्थूलशरीर निकम्मा है । कोई चिन्तन न करें तो सूक्ष्मशरीर निकम्मा है । स्थिरतामें अथवा समाधिमें न रहें तो कारणशरीर निकम्मा है[*] । तात्पर्य है कि ये सब क्रियाएँ स्वरूपमें नहीं होतीं, पर मनुष्य इनको अपनेमें मान लेता है । यह मान्यता ही बन्धन है । अपनेको कर्ता माननेसे यह बँध जाता है‒‘अहंकारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते’ (गीता ३ । २७) और अपनेको कर्ता न माननेसे यह मुक्त हो जाता है‒‘नैव किञ्चित्करोमीति युक्तो मन्येत तत्त्ववित्’ (गीता ५ । ८) । जैसे मनुष्य एक लड़कीके साथ सम्बन्ध जोड़ लेता है तो उसका पूरे ससुराल (सास-ससुर, साला-साली आदि)-के साथ सम्बन्ध जुड़ जाता है । ऐसे ही एक शरीरके साथ सम्बन्ध जोड़नेसे शरीरसे होनेवाली सम्पूर्ण क्रियाओंसे सम्बन्ध जुड़ जाता है अर्थात् शरीरसे होनेवाली क्रियाएँ अपनी क्रियाएँ हो जाती हैं । शरीरसे स्वाभाविक अलगावका अनुभव हो जाय तो फिर जन्म-मरण नहीं होता ।

शरीरके साथ सम्बन्ध रखते हुए मनुष्य कर्म करनेसे भी बँधता है और कर्म न करनेसे भी बँधता है । परन्तु शरीरसे सम्बन्ध-विच्छेद होनेपर वह कर्म करते हुए भी वास्तवमें कुछ नहीं करता‒‘कर्मण्यभिप्रवृत्तोऽपि नैव किञ्चित्करोति सः’ (गीता ४ । २०) जैसे, दहीके साथ घी भी रहता है, पर दहीमेंसे  घी निकाल दिया जाय तो फिर वह उसमें (छाछमें) नहीं मिलता, अलग हो जाता है । ऐसे ही शरीरसे अलग होनेके बाद फिर स्वयं उससे नहीं मिलता । वास्तवमें वह मिला हुआ होनेपर भी अलग ही है, पर मिला हुआ मान लेता है । तात्पर्य है कि जड़ चेतनतक नहीं पहुँचता, पर चेतन जड़तक पहुँचता है और उसके साथ सम्बन्ध मान लेता है तथा जड़में होनेवाली क्रियाओंको, विकारोंको अपनेमें मान लेता है । अगर सम्बन्ध न माने तो बन्धन है ही नहीं और मुक्ति स्वाभाविक है ।

नारायण !     नारायण !!     नारायण !!!

‒‘मेरे तो गिरधर गोपाल’ पुस्तकसे


[*] जब साधक स्थिरतासे भी तटस्थ हो जाता है और स्थिरताका भी साक्षी हो बता है, तब वह कारणशरीरसे भी अलग हो जाता है, जो उसका वास्तविक स्वरूप है ।