।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि
माघ कृष्ण चतुर्दशी, वि.सं.२०७२, रविवार
हम कर्ता-भोक्ता नहीं हैं


एक बात साधकमात्रके हृदयमें बैठ जानी चाहिये कि हम सब भगवान्‌के पुत्र हैं‒‘अमृतस्य पुत्राः’ । कारण कि हम सब भगवान्‌के ही अंश हैं‒‘ममैवांशो जीवलोके’ । हमसे यही गलती होती है कि हम जिनके अंश हैं उन भगवान्‌को अपना न मानकर जड़ वस्तुओं (शरीर, इन्द्रिय, मन, बुद्धि)-को अपना मान लेते हैं‒‘मनःषष्ठानीन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि कर्षति’ (गीता १५ । ७) । जड़ वस्तुओंको अपना माननेसे ही बन्धन हुआ है । यदि अपना न मानें तो मुक्ति स्वतःसिद्ध है । जड़ वस्तु अपनी नहीं है । यदि अपनी होती तो सदा अपने साथ रहती । न शरीर साथ रहेगा, न इन्द्रियाँ साथ रहेंगी, न मन साथ रहेगा, न बुद्धि साथ रहेगी, न प्राण साथ रहेंगे । कोई भी चीज साथमें नहीं रहेगी । अनन्त ब्रह्माण्डोंमें अनन्त चीजें हैं, पर उनमेंसे केश-जितनी चीज भी हमारी नहीं है । फिर शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि, प्राण अपने कैसे हुए ?

एक वस्तु अपनी होती है और एक वस्तु अपनी मानी हुई होती है । शरीर आदि अपने नहीं हैं, प्रत्युत अपने माने हुए हैं । जैसे कोई खेल होता है तो उस खेलमें कोई राजा बनता है, कोई रानी बनती है, कोई सिपाही बनते हैं तो वे सब माने हुए होते हैं, असली नहीं होते । इसी तरह संसारमें व्यक्ति और पदार्थ केवल व्यवहारके लिये अपने माने हुए होते हैं । वे वास्तवमें अपने नहीं होते । अपना न स्थूलशरीर है, न सूक्ष्मशरीर है, न कारणशरीर है । जब अपना कुछ है ही नहीं तो फिर हमें क्या चाहिये ? अपने तो केवल भगवान्‌ ही हैं । हम उन्हींके अंश हैं । भगवान्‌के सिवाय और कोई भी अपना नहीं है । भगवान्‌के सिवाय जो कुछ है, सब मिला हुआ है और छूटनेवाला है ।

विचार करें, आप आये तो कोई वस्तु साथ लाये क्या ? और जाते हुए कोई वस्तु साथ ले जाओगे क्या ? सब कुछ यहीं पड़ा रहेगा । परन्तु उनको अपने काममें लेते रहनेसे आदत पड़ गयी, जिससे उसकी ममता छोड़ना कठिन हो रहा है । गाढ़ नींदमें आपको इन्द्रियाँ-अन्तःकरणसे कुछ भी अनुभव नहीं होता । इसलिये जगनेपर कहते हैं कि मैं ऐसा सुखसे सोया कि कुछ पता नहीं था अर्थात् सबके अभावका और सुखके भावका अनुभव होता है । इससे सिद्ध हुआ कि इन्द्रियोंके बिना भी हमें सुखका अनुभव हुआ । कारण यह है कि जीव स्वाभाविक ही सुखरूप है‒

ईस्वर  अंस  जीव  अबिनासी ।
चेतन अमल सहज सुख रासी ॥
                                 (मानस, उत्तर ११७ । १)

   (शेष आगेके ब्लॉगमें) 
‒‘मेरे तो गिरधर गोपाल’ पुस्तकसे