।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि
माघ शुक्ल प्रतिपदा, वि.सं.२०७२, मंगलवार
हम कर्ता-भोक्ता नहीं हैं


(गत ब्लॉगसे आगेका)
अहंकारसे मोहित अन्तःकरणवाला ही अपनेको कर्ता मानता है‒‘अहंकारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते’ (गीता ३ । २७) । अहंकार अपरा प्रकृति है । परन्तु अहंकारसे मोहित होते हुए भी वास्तवमें वह कर्ता-भोक्ता नहीं है । न तो ब्रह्म कर्ता-भोक्ता है, न जीव कर्ता-भोक्ता है और न आत्मा ही कर्ता-भोक्ता है । कर्ता-भोक्तापन केवल माना हुआ है । इसीलिये भगवान्‌ने कहा है कि तत्त्ववेत्ता पुरुष ‘मैं कर्ता हूँ’ ऐसा न माने‒‘नैव किञ्चित्करोमीति युक्तो मन्येत तत्त्ववित् (गीता ५ । ८) । हम परमात्माके अंश हैं; अतः हम अहंकारसे मोहित नहीं हैं; क्योंकि हम परा प्रकृति हैं और अहंकार अपरा प्रकृति है । अहंकारसे हम मोहित नहीं होते, प्रत्युत अन्तःकरण मोहित होता है । अन्तःकरणसे अपना सम्बन्ध माननेके कारण हम कर्ता-भोक्ता बन जाते हैं ।

अनन्त ब्रह्माण्डोंमें कोई भी चीज हमारी नहीं है तो शरीर हमारा कैसे हुआ ? अहंकारसे मोहित अन्तःकरणवाला हमारा कैसे हुआ ? तभी भगवान्‌ने कहा है‒‘शरीरस्थोऽपि कौन्तेय न करोति न लिप्यते’ । गीताके तेरहवें अध्यायका इकतीसवाँ, बत्तीसवाँ तथा तैंतीसवाँ श्लोक, अठारहवें अध्यायका सत्रहवाँ श्लोक, तीसरे अध्यायका सत्ताईसवाँ श्लोक और पाँचवें अध्यायका आठवाँ श्लोक[*]इन श्लोकोंपर आप एकान्तमें बैठकर विचार करें तो बहुत लाभ होगा । जब स्थूल-सूक्ष्म-कारण शरीर मैं हूँ ही नहीं तो फिर कर्ता-भोक्तापन अपनेमें कैसे हुआ ? यह बात हमारी-आपकी नहीं है, प्रत्युत गीताकी है ! ये गीतामें भगवान्‌के वचन हैं  !

दुष्ट-से-दुष्ट, पापी-से -पापी कोई क्यों न हो, सब-के-सब परमात्माके अंश हैं । आप दृढ़तासे इस बातको स्वीकार कर लें कि हम परमात्माके अंश हैं । परमात्मा हमारे हैं, संसार हमारा नहीं है । प्रत्येक आदमी अपने पिताका होते हुए ही सब कार्य करता है । कोई चाहे रेलवेमें काम करे, चाहे बैंकमें काम करे, चाहे खेतमें काम करे, वह पिताका होते हुए ही सब काम करता है । ऐसे ही हम कोई भी काम करें, परमपिता परमात्माके होते हुए ही करते हैं । काम करते समय हम दूसरेके नहीं हो जाते ।

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘मेरे तो गिरधर गोपाल’ पुस्तकसे


       [*] अनादित्वान्निर्गुणत्वात्परमात्मायमव्ययः ।
शरीरस्थोऽपि कौन्तेय  न करोति न लिप्यते ॥
यथा  सर्वगतं  सौक्ष्म्यादाकाशं  नोपलिप्यते ।
सर्वत्रावस्थितो  देहे  तथात्मा  नोपलिप्यते ॥
यथा प्रकाशयत्येकः  कृत्स्नं  लोकमिमं रविः ।
क्षेत्र क्षेत्री  तथा  कृत्स्नं  प्रकाशयति  भारत ॥
                                                    (गीता १३ । ३१‒३३)

यस्य नाहंकृतो भावी  बुद्धिर्यस्य  न लिप्यते ।
हत्वापि स इमाँल्लोकान्न हन्ति न निबध्यते ॥
                                               (गीता १८ । १७)

प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः ।
अहङ्कारविमूढात्मा  कर्ताहमिति मन्यते ॥
                                              (गीता ३ । २७)

नैव किञ्चित्करोमीति युक्तो मन्येत तत्ववित् ।
                                              (गीता ५ । ८)