(गत ब्लॉगसे आगेका)
अहंकारसे मोहित अन्तःकरणवाला ही अपनेको कर्ता मानता है‒‘अहंकारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते’ (गीता
३ । २७) । अहंकार अपरा
प्रकृति है । परन्तु अहंकारसे मोहित होते हुए भी वास्तवमें वह कर्ता-भोक्ता नहीं है
। न तो ब्रह्म कर्ता-भोक्ता है, न जीव कर्ता-भोक्ता है और न आत्मा ही कर्ता-भोक्ता है । कर्ता-भोक्तापन केवल माना हुआ है । इसीलिये भगवान्ने कहा है कि
तत्त्ववेत्ता पुरुष ‘मैं कर्ता हूँ’
ऐसा न माने‒‘नैव किञ्चित्करोमीति युक्तो मन्येत तत्त्ववित् (गीता
५ । ८) । हम परमात्माके अंश हैं;
अतः हम अहंकारसे मोहित नहीं हैं;
क्योंकि हम परा प्रकृति हैं और अहंकार अपरा प्रकृति है । अहंकारसे हम मोहित नहीं होते, प्रत्युत
अन्तःकरण मोहित होता है । अन्तःकरणसे अपना सम्बन्ध माननेके कारण हम कर्ता-भोक्ता बन
जाते हैं ।
अनन्त ब्रह्माण्डोंमें कोई भी चीज हमारी नहीं है तो शरीर हमारा
कैसे हुआ ? अहंकारसे मोहित अन्तःकरणवाला हमारा कैसे हुआ
? तभी भगवान्ने कहा है‒‘शरीरस्थोऽपि कौन्तेय न करोति न लिप्यते’
। गीताके तेरहवें अध्यायका इकतीसवाँ, बत्तीसवाँ तथा तैंतीसवाँ
श्लोक, अठारहवें अध्यायका सत्रहवाँ श्लोक,
तीसरे अध्यायका सत्ताईसवाँ श्लोक और पाँचवें अध्यायका आठवाँ
श्लोक[*]‒इन श्लोकोंपर आप एकान्तमें बैठकर विचार करें तो बहुत लाभ होगा
। जब स्थूल-सूक्ष्म-कारण शरीर मैं हूँ ही नहीं तो फिर कर्ता-भोक्तापन अपनेमें कैसे
हुआ ? यह बात हमारी-आपकी नहीं है, प्रत्युत गीताकी है ! ये गीतामें भगवान्के वचन हैं !
दुष्ट-से-दुष्ट, पापी-से -पापी कोई क्यों न हो,
सब-के-सब परमात्माके अंश हैं । आप
दृढ़तासे इस बातको स्वीकार कर लें कि हम परमात्माके अंश हैं । परमात्मा हमारे हैं, संसार
हमारा नहीं है । प्रत्येक आदमी
अपने पिताका होते हुए ही सब कार्य करता है । कोई चाहे रेलवेमें काम करे,
चाहे बैंकमें काम करे,
चाहे खेतमें काम करे,
वह पिताका होते हुए ही सब काम करता है । ऐसे ही हम कोई भी काम
करें, परमपिता परमात्माके होते हुए ही करते हैं । काम करते समय हम
दूसरेके नहीं हो जाते ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘मेरे तो गिरधर गोपाल’ पुस्तकसे
शरीरस्थोऽपि कौन्तेय न करोति न लिप्यते ॥
यथा
सर्वगतं सौक्ष्म्यादाकाशं नोपलिप्यते ।
सर्वत्रावस्थितो देहे तथात्मा
नोपलिप्यते ॥
यथा
प्रकाशयत्येकः कृत्स्नं लोकमिमं रविः ।
क्षेत्र
क्षेत्री तथा कृत्स्नं
प्रकाशयति भारत ॥
(गीता १३ । ३१‒३३)
यस्य
नाहंकृतो भावी बुद्धिर्यस्य न लिप्यते ।
हत्वापि
स इमाँल्लोकान्न हन्ति न निबध्यते ॥
(गीता
१८ । १७)
प्रकृतेः
क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः ।
अहङ्कारविमूढात्मा
कर्ताहमिति मन्यते ॥
(गीता
३ । २७)
नैव
किञ्चित्करोमीति युक्तो मन्येत तत्ववित् ।
(गीता
५ । ८)
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