।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि
माघ अमावस्या, वि.सं.२०७२, सोमवार
हम कर्ता-भोक्ता नहीं हैं


(गत ब्लॉगसे आगेका)
जीवमें स्वाभाविक ही सुख है, दुःख है ही नहीं । दुःख-सन्ताप जड़के सम्बन्धसे ही होते हैं । मनमें जो पुरानी बात याद आती है कि बालकपनमें मैं खेलता था, पढ़ता था, जवानीपनमें मैं अमुक कार्य करता था, वह याद आना भी मनमें ही है, हमारेमें नहीं है । जो काम शरीरसे होता है, वह हमारेसे नहीं होता । स्थूल और सूक्ष्म-शरीरसे भोगे गये भोग हमारेमें नहीं हैं । हम उनसे अलग हैं । यह विशेष ध्यान देनेकी बात है । हमारे साथ कोई भी चीज रहनेवाली नहीं है । हम शरीर नहीं हैं, प्रत्युत भगवान्‌के साक्षात् अंश हैं । हमारेमें कर्तृत्व-भोक्तृत्व नहीं हैं । गीताने बहुत बढ़िया बात कही है‒

शरीरस्थोऽपि कौन्तेय न करोति न लिप्यते ॥
                                                        (१३ । ३१)

‘यह (आत्मा) शरीरमें रहता हुआ भी न करता है और न लिप्त होता है ।’

तात्पर्य है कि कर्तापन और भोक्तापन शरीरमें है, पर हम उसको अपनेमें मान लेते हैं । इसी बातका विवेचन भगवान्‌ने गीतामें आकाश और सूर्यका दृष्टान्त देकर किया है कि जैसे आकाश किसी भी वस्तुसे लिप्त नहीं होता, ऐसे ही आत्मा भी किसी देहसे लिप्त नहीं होती; और जैसे सूर्य तीनों लोकोंको प्रकाशित करता है, ऐसे ही आत्मा सम्पूर्ण शरीरोंको प्रकाशित करती है (गीता १३ । ३२-३३) । तात्पर्य है कि सूर्यके प्रकाशमें ही वेदका पाठ होता है और सूर्यके प्रकाशमें ही व्याध शिकार करता है, पर सूर्यको उन क्रियाओंका न पुण्य लगता है, न पाप । कारण कि सूर्य किसी भी क्रियाका कर्ता नहीं बनता । भगवान्‌ कहते हैं‒

यस्य नाहङ्कृतो भावो बुद्धिर्यस्य न लिप्यते ।
हत्वापि स  इमाँलोकान्न  हन्ति न निबध्यते ॥
                                                 (गीता १८ । १७)

‘जिसका अहंकृतभाव (मैं कर्ता हूँ‒ऐसा भाव) नहीं है और जिसकी बुद्धि लिप्त नहीं होती, वह युद्धमें इन सम्पूर्ण प्राणियोंको मारकर भी न मारता है और न बँधता है ।’

जैसे आकाश भोक्ता नहीं है, ऐसे ही हम भी भोक्ता नहीं हैं और जैसे सूर्य कर्ता नहीं है, ऐसे ही हम भी कर्ता नहीं हैं । स्वरूपमें कर्तृत्व-भोक्तृत्व है ही नहीं । यह कितनी विलक्षण, अलौकिक, सच्ची बात है ! कर्तृत्व और भोक्तृत्व ही संसार है । कर्तापना और लिप्तपना न हो तो संसार है ही नहीं । स्वयं शरीरमें रहता हुआ भी न करता है, न लिप्त होता है । यह साधकमात्रके लिये बड़े कामकी बात है । यह भगवान्‌ने हमारी वस्तुस्थिति बतायी है । इसमें कई दिन, कई महीने, कई वर्ष, कई जन्म लगेंगे‒यह बात नहीं है । ऐसा नहीं है कि शरीरके मरनेपर मुक्ति होगी । शरीरके रहते हुए भी मुक्ति स्वतःसिद्ध है‒‘शरीरस्थोऽपि’

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘मेरे तो गिरधर गोपाल’ पुस्तकसे