(गत ब्लॉगसे आगेका)
जीवमें स्वाभाविक ही सुख है, दुःख
है ही नहीं । दुःख-सन्ताप जड़के सम्बन्धसे ही होते हैं । मनमें जो पुरानी बात याद आती है कि बालकपनमें मैं खेलता था,
पढ़ता था, जवानीपनमें मैं अमुक कार्य करता था,
वह याद आना भी मनमें ही है,
हमारेमें नहीं है । जो काम शरीरसे होता है,
वह हमारेसे नहीं होता । स्थूल और सूक्ष्म-शरीरसे
भोगे गये भोग हमारेमें नहीं हैं । हम उनसे अलग हैं । यह विशेष ध्यान देनेकी बात है
। हमारे साथ कोई भी चीज रहनेवाली नहीं है । हम शरीर नहीं हैं,
प्रत्युत भगवान्के साक्षात् अंश हैं । हमारेमें कर्तृत्व-भोक्तृत्व
नहीं हैं । गीताने बहुत बढ़िया बात कही है‒
शरीरस्थोऽपि कौन्तेय न करोति न लिप्यते ॥
(१३ । ३१)
‘यह (आत्मा) शरीरमें रहता हुआ भी न करता है और
न लिप्त होता है ।’
तात्पर्य है कि कर्तापन और भोक्तापन शरीरमें है,
पर हम उसको अपनेमें मान लेते हैं । इसी बातका विवेचन भगवान्ने
गीतामें आकाश और सूर्यका दृष्टान्त देकर किया है कि जैसे आकाश किसी भी वस्तुसे लिप्त
नहीं होता, ऐसे ही आत्मा भी किसी देहसे लिप्त नहीं होती;
और जैसे सूर्य तीनों लोकोंको प्रकाशित करता है,
ऐसे ही आत्मा सम्पूर्ण शरीरोंको प्रकाशित करती है (गीता १३ ।
३२-३३) । तात्पर्य है कि सूर्यके प्रकाशमें ही वेदका पाठ होता है और सूर्यके प्रकाशमें
ही व्याध शिकार करता है, पर सूर्यको उन क्रियाओंका न पुण्य लगता है,
न पाप । कारण कि सूर्य किसी भी क्रियाका कर्ता नहीं बनता । भगवान्
कहते हैं‒
यस्य नाहङ्कृतो भावो बुद्धिर्यस्य न लिप्यते ।
हत्वापि स इमाँलोकान्न
हन्ति न निबध्यते ॥
(गीता १८ । १७)
‘जिसका अहंकृतभाव (मैं कर्ता हूँ‒ऐसा भाव) नहीं
है और जिसकी बुद्धि लिप्त नहीं होती,
वह युद्धमें इन सम्पूर्ण प्राणियोंको मारकर भी
न मारता है और न बँधता है ।’
जैसे आकाश भोक्ता नहीं है,
ऐसे ही हम भी भोक्ता नहीं हैं और जैसे सूर्य कर्ता नहीं है,
ऐसे ही हम भी कर्ता नहीं हैं । स्वरूपमें कर्तृत्व-भोक्तृत्व
है ही नहीं । यह कितनी विलक्षण, अलौकिक, सच्ची बात है ! कर्तृत्व और भोक्तृत्व ही संसार है । कर्तापना
और लिप्तपना न हो तो संसार है ही नहीं । स्वयं शरीरमें रहता
हुआ भी न करता है, न लिप्त होता है । यह साधकमात्रके लिये बड़े कामकी
बात है । यह भगवान्ने
हमारी वस्तुस्थिति बतायी है । इसमें कई दिन,
कई महीने, कई वर्ष, कई जन्म लगेंगे‒यह बात नहीं है । ऐसा
नहीं है कि शरीरके मरनेपर मुक्ति होगी । शरीरके रहते हुए भी मुक्ति स्वतःसिद्ध है‒‘शरीरस्थोऽपि’
।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘मेरे तो गिरधर गोपाल’ पुस्तकसे
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