।। श्रीहरिः ।।



आजकी शुभ तिथि

फाल्गुन कृष्ण सप्तमी, वि.सं.२०७२, मंगलवार

साधकोंके प्रति-१४
 
 

साधक अगर ऐसा होना चाहिये, ऐसा नहीं होना चाहिये’‒इन दो बातोंको छोड़ दे और भगवान्‌की आज्ञाके अनुसार कार्य करता रहे तो उसके। भगवान्‌की प्राप्ति हो जाय ! जिसको मुक्ति कहते है, कल्याण कहते हैं, वह हो जाय ! रामायणमें आता है‒
 
कबहुँक करि करुना नर देही ।
देत  ईस  बिनु  हेतु   सनेही ॥
                                 (७ । ४३ । ३)
 
बिना हेतु कृपा करनेवाले प्रभु अपनी तरफसे कृपा करके जीवको मनुष्य-शरीर देते है । कृपाका तात्पर्य यह हुआ कि मनुष्य अपना कल्याण कर ले । मनुष्यका कल्याण हो जाय‒इस भावसे भगवान् मनुष्य-शरीर देते है । अतः भगवान्‌की तरफसे तो इसके उद्धारका संकल्प हो गया । परन्तु मनुष्य ऐसा होना चाहिये, ऐसा नहीं होना चाहिये’‒इस बातको पकड़ लेता है और इसीसे बन्धनमें पड़ जाता है; और इसीको कामना कहते हैं ।
 
गीताने जो कामना-त्यागकी बात कही है, उसका तात्पर्य है कि ऐसा हो जाय और ऐसा न हो जाय’‒ये दोनों छोड़ दें । इस तरह कामनाका त्याग करनेसे मनुष्यका संसारके साथ सम्बन्ध नहीं रहेगा और भगवान्‌की कृपासे, भगवान्‌के संकल्पसे इसका उद्धार हो ही जायगा‒यह निश्चित बात है ।
 
प्रभु स्वाभाविक बिना कारण कृपा करते है, किसी कारणसे नहीं‒बिनु हेतु सनेही । अतः भगवान्‌का यह संकल्प है कि मनुष्य अपना उद्धार कर ले । भगवान्‌का संकल्प सत्य होता है, नित्य होता है और स्वतःसिद्ध होता है । इसलिये मनुष्यको अपने कल्याणके लिये कुछ भी करना नहीं पड़ता । बस, केवल एक बात है कि मनुष्य अपनी आड़ नहीं लगाये अर्थात् ऐसा होना चाहिये और ऐसा नहीं होना चाहिये’‒इसको मिटा दे । फिर इसका कल्याण स्वतः हो जायेगा ।
 
ऐसा हो जाय और ऐसा न हो जाय‒इससे होता कुछ नहीं । कारण कि ऐसा हो जाय’‒ऐसा चाहनेसे क्या ऐसा हो जाता है ? और ऐसा न हो जाय’‒ऐसा चाहनेसे क्या ऐसा नहीं होता ? एक-एक भाई-बहन इसपर विचार करके देखें कि जैसा हम चाहें, वैसा हो जाय और जो नहीं चाहें वह नहीं हो‒यह बात होती नहीं । अभीतक किसीके भी मनकी बात पूरी नहीं हुई तो अब कैसे हो जायगी ? आपलोग अपना-अपना जीवन देख लें कि हमने जैसा चाहा, वैसा हुआ है क्या ? जो नहीं चाहा, वह नहीं हुआ है क्या ? आपकी उम्रभरका है ऐसा अनुभव ? अतः हमारे चाहनेसे क्या होता है ? प्रभुकी प्राप्तिमें बाधा लगनेके सिवाय कुछ नहीं होता । जिसको तत्त्वज्ञान, जीवन्मुक्ति, भगवत्प्रेम, भगवत्प्राप्ति, कल्याण, उद्धार कहते हैं, केवल उसमें बाधा लगती है और कुछ नहीं होता ।
 
 (शेष आगेके ब्लॉगमें)
         ‒‘साधकोंके प्रति’ पुस्तकसे