।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि
फाल्गुन शुक्ल द्वितीया, वि.सं.२०७२, गुरुवार
प्रवचन- १६
 
 
मनुष्य-शरीर विवेक-प्रधान है । विवेकका अर्थ होता है‒सार और असारको, कर्तव्य और अकर्तव्यको ठीक-ठीक जानना । उस विवेकको काममें लें । मनुष्य विवेकको काममें नहीं लेता, विवेकका विशेष आदर नहीं करता, इससे मनुष्य दुःख पाता है । अगर विवेकको ठीक-ठीक मानकर उसके अनुसार चले, तो वह निहाल हो जाय । इस विवेकको जाग्रत्‌ करनेके लिये सत्-शास्त्र हैं, सत्पुरुष हैं, गुरु हैं, माता-पिता आदि हैं । इनके ऊपर जिम्मेवारी है और ये विवेकको जाग्रत् करते है । उस विवेकसे जाननेकी एक खास बात है, उसपर आप ध्यान दें ।

साधारण दृष्टिसे रुपये बहुत बड़ी चीज दीखते हैं और हैं भी; क्योंकि रुपयोंसे सब चीजें आती हैं । हम बहुत-सी चीजें रुपयोंसे खरीद लेते हैं और उनसे हमारा काम चलता है । इस वास्ते जीवनके लिये रुपये बड़ी चीज दीखते हैं ।

हम जो जी रहे हैं, यह जीना हमें बहुत अच्छा लगता है । दुःखी-से-दुःखी प्राणी भी जल्दी मरना नहीं चाहता । अतः जीनेके लिये अन्न, जल, वस्त्र आदि वस्तुएँ उपयोगी हैं । हमारा जीवन-निर्वाह हो जाय, हमारे प्राण बने रहें‒इसके लिये वस्तुओंकी आवश्यकता है । उन वस्तुओंके लिये ही रुपयोंकी आवश्यकता है । रुपयोंके लिये वस्तुओंकी आवश्यकता नहीं है । हाँ, वस्तुओंसे रुपये पैदा हो सकते हैं; परन्तु रुपयोंसे वस्तुएँ बहुत ऊँची हैं, जिनसे हमारा जीवन रहता है । वस्तुओंका उपार्जन होता है । रुपये तो अन्न, वस्र आदि वस्तुओंके लेन-देनमें काम आते हैं । अतः रुपयोंसे वस्तुएँ बहुत मूल्यवान् हैं ।

वस्तुओंसे भी बहुत मूल्यवान् हैं‒प्राणी, मनुष्य, पशु पक्षी, वृक्ष । ये बहुत कामके हैं । इनके पालनसे ही हमें जीवनोपयोगी वस्तुएँ मिलती है । अतः जिनसे जीवन चले, वे जीनेवाले प्राणी श्रेष्ठ हैं । उन प्राणियोंके लिये ही वस्तुएँ है । प्राणियोंमें भी मनुष्य श्रेष्ठ है; क्योंकि दूसरे जितने प्राणी हैं, वे अपने पुराने कर्माके फल भोगते हैं और फल भोगकर शुद्ध होते हैं । परन्तु मनुष्यमें दो बातें हैं‒एक तो पुराने पापों और पुण्योंके फल भोगना और एक आगे अपने उद्धारके लिये काम करना । अनुकूल और प्रतिकूल परिस्थितिका उपभोग करना और उनसे सुखी-दुःखी होना पशुओंमें भी है । सुख पानेका और दुःख मिटानेका उद्योग पशु भी अपनी बुद्धिके अनुसार करते हैं । परन्तु आगे (भविष्यमें) क्या होगा‒इसका ठीक तरहसे विचार करनेमें पशु-पक्षी समर्थ नहीं हैं पर मनुष्य समर्थ है । मनुष्य विवेक-प्रधान है, इस वास्ते हमारा हित किस बातमें है और अहित किस बातमें है ? हमारा उत्थान किस बातमें है और पतन किस बातमें है ? सार क्या है और असार क्या है ? नित्य क्या है और अनित्य क्या है ? सत्य क्या है और असत्य क्या है ?‒इन सब बातोंको जाननेकी योग्यता मनुष्यमें है, पशु-पक्षियोंमें नहीं है । अतः मनुष्योंमें भी विवेक मूल्यवान् है ।

    (शेष आगेके ब्लॉगमें)
 ‒‘साधकोंके प्रति’ पुस्तकसे