।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि

फाल्गुन शुक्ल तृतीया, वि.सं.२०७२, शुक्रवार

 

प्रवचन- १६ 

 


 
(गत ब्लॉगसे आगेका)

जो विवेकके अनुसार चलते है, वे मनुष्योंमें श्रेष्ठ है । विवेक श्रेष्ठ है, इसलिये विवेकका आधार लेकर चलनेवाले भी श्रेष्ठ है । विवेक किसलिये है ? विवेक इसलिये है कि हितकारक काम करे और अहितकारक काम न करे, सारको ग्रहण करे और असारका त्याग करे, इससे वर्तमानमें और भविष्यमें भी सुख हो, दुःख न हो‒ऐसा काम करे ।

जब मनुष्य वस्तुओंका और रुपयोंका आदर ज्यादा करने लग जाते हैं, तब यह विवेक दब जाता है । भगवान्‌ने गीतामें तीन तरहकी बुद्धि बतायी है । जो बुद्धि प्रवृत्ति और निवृत्तिको, कर्तव्य और अकर्तव्यको ठीक-ठीक जानती है, वह सात्त्विकी होती है (गीता १८ । ३०) । जो बुद्धि धर्म और अधर्मको, कर्तव्य और अकर्तव्यको ठीक-ठीक नहीं जानती, वह राजसी होती है (गीता १८ । ३१) । जो बुद्धि अधर्मको धर्म मान लेती है और इस प्रकार सब चीजोंको उलटा ही मान लेती है, वह तामसी होती है (गीता १८ । ३२) । सात्त्विकी बुद्धि थोड़े मनुष्योंमें ही होती है । इसका अर्थ यह नहीं है कि दूसरे मनुष्योंमें सात्त्विकी बुद्धि होती ही नहीं । सात्त्विकी बुद्धिको ठीक-ठीक काममें लानेवाले मनुष्य थोड़े हैं । राजसी बुद्धिवाले मनुष्य बहुत हैं । तामसी बुद्धिवाले मनुष्य तो इस कलियुगमें और भी अधिक हैं, जिन्हें उलटा ही दीखता है । उलटा दीखना क्या हुआ ? वस्तुओं और प्राणियोंसे भी बढ़कर रुपयोंको मान लिया । वे रुपयोंका ही संग्रह करते हैं । रुपयोंके लिये झूठ, कपट करना पड़े, चोरी करनी पड़े, डाका डालना पड़े, मारपीट करनी पड़े, हत्या करनी पड़े तो वह भी करनेके लिये तैयार हो जाते हैं । रुपये इकट्ठे करनेके लिये गायोंको भी मारने लगते हैं । यह बिलकुल तामसी बुद्धि है । रुपये कमाना और उनकी रक्षा करना तामसी नहीं है, किन्तु सत्‌-असत्‌का, नित्य-अनित्यका हित-अहितका विचार छोड़कर झूठ, कपट, बेईमानी, चोरी आदि करके किसी तरहसे रुपये इकट्ठा करना महान् तामसी बुद्धि है । इससे क्या होगा रुपयोंका आदर ज्यादा होगा । इससे आगे चलकर रुपये वस्तुओंके लिये नहीं रहते, अपितु संख्या बढ़ानेके लिये हो जाते है । हजार हो जाय तो लाख, लाख हो जाय तो करोड़, इस तरह अरबों-खरबों रुपये बढ़ते ही जायँ । वे यह नहीं सोचते और न सोच ही सकते हैं कि इतने रुपये बढ़ाकर क्या करेंगे ? न अच्छे आचरणोंकी तरफ विचार है, न व्यक्तियोंकी तरफ विचार है, न वस्तुओंकी तरफ विचार है; बस केवल रुपये कमाना और इकट्ठे करना ।
 


    (शेष आगेके ब्लॉगमें)

 ‒‘साधकोंके प्रति’ पुस्तकसे