।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि
फाल्गुन शुक्ल एकादशी, वि.सं.२०७२, शनिवार
आमलकी एकादशी-व्रत (सबका)
स्वतःप्राप्त परमात्मतत्त्व


परमात्मतत्त्व नित्य-निरन्तर ज्यों-का-त्यों विद्यमान है । नित्य-निरन्तर विद्यमान कहना भी वास्तवमें कालकी सत्ताको लेकर है । वास्तवमें कालकी सत्ता नहीं है । सत्ता केवल परमात्मतत्त्वकी ही है । उसकी सत्तासे ही जो असत् (‘नहीं’) है, उस शरीर-संसारकी सत्ता दीख रही है‒

जासु सत्यता   तें जड़ माया ।
भास सत्य इव मोह सहाया ॥
                          (मानस, बाल ११७ । ४)

बिना विचार किये ऐसा दीखता है कि हम जी रहे हैं अर्थात् शरीर बढ़ रहा है, पर थोड़ा विचार करनेपर बिलकुल प्रत्यक्ष दीखता है कि शरीर निरन्तर मर रहा है । वास्तवमें मर रहा नहीं है, प्रत्युत केवल मरना ही है  ! गीतामें आया है‒‘नासतो विद्यते भावः’ (२ । १६) असत्‌की सत्ता विद्यमान नहीं है ।’ जैसे, वृक्ष उत्पन्न हुआ दीखता है तो वास्तवमें उत्पन्न नहीं हुआ है । बीज मर गया, उसीको उत्पन्न होना कह दिया । तात्पर्य है कि पहली अवस्थाको छोड़ना मृत्यु है और दूसरी अवस्थाको प्राप्त होना जन्म है । कोई भी अवस्था नित्य नहीं रहती । अतः जन्म-मरणके प्रवाहमें केवल मरना-ही-मरना मुख्य है । वस्तु, व्यक्ति, किया, सामर्थ्य, योग्यता आदिके रूपमें जो संसार दीख रहा है, उसका नित्य-निरन्तर वियोग (अभाव) हो रहा है । यह वियोग एक क्षण भी बन्द नहीं होता । जैसे गंगाजीका प्रवाह निरन्तर समुद्रमें जा रहा है, ऐसे ही संसारका प्रवाह निरन्तर अभावमें, प्रलयमें जा रहा है । सब शरीर निरन्तर मौतमें जा रहे हैं । हमारे कहनेमें तो देरी लगती है, पर मरनेमें देरी नहीं लगती ! इसलिये संसारको मौतका सागर कहा है‒मृत्युसंसारसागरात्’ (गीता १२ । ७) । इस मरने-ही-मरनेके भीतर ‘है’ रूपसे एक अमर तत्त्व स्वतः-स्वाभाविक विद्यमान है, जिसका कभी किसी अवस्थामें अभाव नहीं होता‒‘नाभावो विद्यते सतः’ (गीता २ । १६) । उसी अमर तत्त्वको हमें प्राप्त करना है और मरनेसे अलग होना है । वास्तवमें जिसको प्रात करना है, वह हमें प्राप्त ही है और जिससे अलग होना है वह अलग ही है ।

जो नहीं’ है, उससे अलग हो जानेका नाम भी योग है‒तं विद्याद्‌दुःखसंयोगवियोगं योगसञ्ज्ञितम्’ (गीता ६ । २३) और जो है’ उसमें तल्लीन हो जानेका नाम भी योग है‒समत्वं योग उच्यते’ (गीता २ । ४८) । भगवान् कहते हैं कि तू मेरी कृपासे सम्पूर्ण विघ्नोंको तर जायगा‒मच्चित्तः सर्वदुर्गाणि मत्मसादात्तरिष्यसि’ (गीता १८ । ५८) और मेरी कृपासे शाश्वत अविनाशी पदको प्रास हो जायगा‒मत्प्रसादादवाप्नोति शाश्वतं पदमव्ययम्’ (गीता १८ । ५६) । अतः तर जाना भी योग है और प्राप्त हो जाना भी योग है । इसमें केवल नाशवान् सुखका आकर्षण ही बाधक है । सुख तो रहेगा नहीं, पर उसकी लोलुपता हमारा पतन कर देगी । इस सुख-लोलुपताका हमें त्याग करना है । फिर तत्त्वमें हमारी स्वतः-स्वाभाविक स्थिति है ।

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘सत्संग मुक्ताहार’ पुस्तकसे