।। श्रीहरिः ।।



आजकी शुभ तिथि

फाल्गुन कृष्ण अष्टमी, वि.सं.२०७२, बुधवार

साधकोंके प्रति-१४
 
 
(गत ब्लॉगसे आगेका)
कहते है बात तो ठीक है पर मनमें ऐसी कामना हो जाती है, क्या करें ?’ इसमें एक बात बताते है । जो हो जाता है, वह दोषी नहीं होता, प्रत्युत जो करते हैं वह दोषी होता है । जैसे, वर्षा हो जाय, न हो जाय तो क्या हमें उलाहना मिलता है ? क्या इसमें हमारी कोई जिम्मेवारी होती है ? जो स्वतः होता है, उसकी हमारेपर कोई जिम्मेवारी नहीं होती, उसका हमें कोई पाप-पुण्य नहीं लगता । अतः मनमें ऐसा हो और ऐसा न हो’‒ऐसा आ भी जाय तो उसकी उपेक्षा कर दें कि नहीं, हमें यह कामना नहीं करनी है, हमें यह बात बिलकुल ही नहीं ररवनी है ।’ इसपर अगर आप दृढ़तासे टिक जायँ तो यह कामना मिट जायेगी ।
हमारे मनमें तो यही बात रहनी चाहिये कि जैसा भगवान् चाहें वैसा होना चाहिये और जैसा भगवान् नहीं चाहें, वैसा नहीं होना चाहिये’‒
मेरी चाही मत करो, मैं मूरख अज्ञान ।
तेरी चाही में प्रभो,   है मेरा कल्यान ॥
 
अगर चाह हो भी जाय तो प्रभुसे कह दें कि हे नाथ ! मेरी चाही मत करना। नारदजीने चाहा कि मेरा विवाह हो जाय, तो क्या विवाह हो गया ? उन्होंने भगवान्‌से भी माँग लिया, तो भगवान्‌ने कहा कि जैसा तुम्हारा परम हित होगा, वैसा करूँगा ।’
जेहि बिधि होइहि परम हित नारद सुनहु तुम्हार ।
सोइ हम करब न आन कछु बचन न मूषा हमार ॥
                                                 (मानस १ । १३२)
 
नारदजीने अपने-आपको भगवान्‌को दे रखा था; अतः उनके माँगनेपर भी भगवान्‌ने नहीं दिया । इसलिये माँगकर अपनी इज्जत क्यों खोये; क्योंकि प्रभु तो अपनी मरजीसे करेंगे ! जब वे अच्छे-से-अच्छे भक्तका कहना भी नहीं करते, तब वे हमारा कहना कैसे करेंगे ? तो फिर कहना ही क्यों ? कुछ भी नहीं चाहेंगे तो हमारी इज्जत रह जायेगी ।
 जब हनुमान्‌जी सीताजीका पता लगाकर उनका सन्देश लेकर आये, तब भगवान्‌ने उनसे कहा कि मैं तुम्हें क्या दूँ ? देनेके लिये मेरे पास कुछ है ही नहीं; अतः मैं तुम्हारा ऋणी हूँ ।’ इसलिये जो भगवान्‌से कुछ नहीं चाहता, भगवान् उसके ऋणी हो जाते है । जैसे, आपको यह मालूम हो जाय कि ये महात्मा, ये पण्डितजी कुछ नहीं चाहते तो आपके मनमें भाव होगा कि इनको कुछ दे दूँ । ये हमसे कुछ ले लें‒ऐसी आपकी स्वाभाविक एक रुचि होती है । ऐसे ही जो कुछ नहीं चाहता, उसका कल्याण हो जाय‒ऐसी प्रभुके मनमें आती है ।
    (शेष आगेके ब्लॉगमें)
 ‒‘साधकोंके प्रति’ पुस्तकसे