।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि
फाल्गुन शुक्ल द्वादशी, वि.सं.२०७२, रविवार
स्वतःप्राप्त परमात्मतत्त्व


(गत ब्लॉगसे आगेका)

परमात्मा सबमें स्वतः-स्वाभाविक परिपूर्ण हैं । वे नित्य प्राप्त हैं, स्वतः प्राप्त हैं, स्वाभाविक प्राप्त हैं । उनको प्राप्त करनेमें उद्योग, परिश्रम, पुरुषार्थ नहीं करना पड़ता । उद्योग संसारकी वस्तु प्राप्त करनेमें करना पड़ता है । परमात्माकी प्राप्तिके लिये उद्योग करना पड़ेगा, परिश्रम करना पड़ेगा, कठिन तपस्या करनी पड़ेगी, समय लगाना पड़ेगा, सिद्धि करनी पड़ेगी, किसीसे पूछना पड़ेगा, पढ़ना पड़ेगा‒इस तरहकी बहुत-सी बाधाएँ हमारी बनायी हुई हैं, जिनके कारण हम परमात्मप्राप्तिसे वंचित रहते हैं । सांसारिक वस्तुकी प्राप्तिमें तो भविष्य होता है, पर जो नित्यप्राप्त है, स्वतः-स्वाभाविक है, उसकी प्राप्तिमें भविष्य कैसे ? जो प्राप्त नहीं है, उसको प्राप्त मान लिया‒यही नित्यप्रासकी प्राप्तिमें बाधा है । यही नित्यप्राप्तके न दीखनेमें आवरण (परदा) है !

है सो सुन्दर है सदा, नहिं सो सुन्दर नाहिं ।
नहिं सो परगट देखिये, है सो दीखे नाहिं ॥

वास्तवमें है’ नहीं ढकता, हमारी दृष्टि ही ढकी जाती है । नहीं’ की सत्ताको लेकर है’ को नहीं मानना ही आवरण है । नहीं’ को नहीं माननेसे है’ का अनुभव स्वतः होता है ।

जो निरन्तर जा रहा है, उस नहीं’ को देखनेसे है’ में हमारी स्थिति स्वतः-सिद्ध होती है, करनी नहीं पड़ती । नाशवान्‌को देखनेसे अविनाशीमें हमारी स्थिति स्वतः-स्वाभाविक है । नाशवान्‌को हम नाशवान् जानते तो हैं, पर इस जानकारीको हम महत्त्व नहीं देते । अब केवल इस जानकारीको महत्त्व देना है । जैसे, एक आदमी खड़ा है और उसके सामनेसे कई आदमी चले गये । किसीने पूछा कि कितने आदमी चले गये तो उसने कहा कि एक-एक करके दस आदमी चले गये । इससे सिद्ध हुआ कि दस आदमी चले गये’‒ऐसा कहनेवाला नहीं गया, वहीं खड़ा रहा । अगर वह भी चला जाता तो दस आदमी चले गये‒ऐसा कौन कहता ? ऐसे ही संसार प्रतिक्षण जा रहा है‒ऐसा जाननेवाला कहीं गया नहीं । नहीं’ का ज्ञान है’ से ही होता है । नहीं’ से नहीं’ का ज्ञान नहीं होता । अतः शरीर-संसार निरन्तर जा रहे हैं‒इस तरफ दृष्टि रहनेपर बिना विचार किये स्वरूपमें स्थिति स्वतः है । इसमें श्रवण, मनन, निदिध्यासन, समाधि आदिकी क्या जरूरत है ? देश नहीं है, काल नहीं है वस्तु नहीं है, व्यक्ति नहीं है, परिस्थिति नहीं है, अवस्था नहीं है, घटना नहीं है, क्रिया नहीं है‒इधर दृष्टि होनेपर स्वतः समाधि है । तात्पर्य है कि अगर है’ को देखना हो तो नहीं’ को देखो । नहीं’ को देखते-देखते है’ में स्थिति स्वतः होती है ।

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘सत्संग मुक्ताहार’ पुस्तकसे