।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि
फाल्गुन शुक्ल त्रयोदशी, वि.सं.२०७२, सोमवार
स्वतःप्राप्त परमात्मतत्त्व


(गत ब्लॉगसे आगेका)

एक मार्मिक बात है कि है’ को देखनेसे शुद्ध है’ नहीं दीखेगा, पर नहीं’ को नहीं’-रूपसे देखनेपर शुद्ध है’ दीखेगा ! कारण कि है’ को देखनेमें मन-बुद्धि लगायेंगे, वृत्ति लगायेंगे तो है’ के साथ नहीं’ (वृत्ति) भी मिला रहेगा । परन्तु नहीं’ को नहीं’-रूपसे देखनेपर वृत्ति भी नहीं’ में चली जायकी और शुद्ध है’ शेष रह जायगा; जैसे‒कूड़ा-करकट दूर करनेपर उसके साथ झाड़ूका भी त्याग हो जाता है और मकान शेष रह जाता है । तात्पर्य है कि परमात्मा सबमें परिपूर्ण है’इसका मनसे चिन्तन करनेपर, बुद्धिसे निश्चय करनेपर वृत्तिके साथ हमारा सम्बध बना रहेगा । परन्तु संसारका प्रतिक्षण वियोग हो रहा है’इस प्रकार संसारको अभावरूपसे देखनेपर संसार और वृत्ति‒दोनोंसे सम्बन्ध-विच्छेद हो जायगा और भावरूप शुद्ध परमात्मतत्त्व स्वतः शेष रह जायगा । इसलिये परमात्माकी प्राप्तिमें निषेधात्मक साधन मुख्य है; क्योंकि मूलमें अभावरूप संसारका निषेध ही करना है । संसारका निषेध कर दें तो नित्यप्राप्त परमात्माका अनुभव स्वतः-स्वाभाविक हो जायगा ।

वास्तवमें ज्ञान नहीं’ का ही होता है । है’ का ज्ञान नहीं होता; क्योंकि वह तो स्वतः रहता है । नहीं’ को है’ मान लिया‒यह अज्ञान है और नहीं’ को नहीं’ जान लिया‒यह ज्ञान है । ज्ञान होते ही नहीं’ मिट जाता है और है’ रह जाता है । इसलिये साधकमें हर समय स्वाभाविक ही यह जागृति रहनी चाहिये, चेत रहना चाहिये कि संसार नहीं है । जैसे, गृहस्थोंके घरमें लड़के भी पैदा होते हैं और लडकियाँ भी । लड़केके पैदा होनेपर यह ज्ञान स्वतः रहता है कि यह इस घरमें रहनेवाला है और लड़कीके पैदा होनेपर यह ज्ञान स्वतः रहता है कि यह इस घरमें रहनेवाली नहीं है । इस ज्ञानके लिये अभ्यास नहीं करना पड़ता । इसी तरह शरीर और संसार प्रतिक्षण जा रहे हैं‒यह ज्ञान स्वतः रहना चाहिये ।

जैसे भीतरमें यह बात बैठी हुई है कि लड़की अपने घर जायगी, यहाँ नहीं रहेगी, ऐसे ही भीतरमें यह बात बैठनी चाहिये कि संसार तो जायगा, यहाँ नहीं रहेगा । जानेवालेसे क्या मोह करें ? अतः इस संसाररूपी लड़कीको भगवान्‌के अर्पित कर दें; क्योंकि भगवान्‌के समान दूसरा कोई योग्य वर मिलेगा नहीं । फिर हमारा कल्याण स्वतः-सिद्ध है । वास्तवमें संसारका सम्बन्ध भगवान्‌के साथ ही है क्योंकि यह भगवान्‌की ही अपरा प्रकृति[*] है  । हमने ही इसको भगवान्‌से अलग मानकर अपना सम्बन्ध इसके साथ जोड़ लिया है‒जीवभूतां महाबाहो ययेदं धार्यते जगत्’ (गीता ७ । ५) ।

नहीं’ को है’ रूपसे माने बिना कोई मनुष्य भोग और संग्रह कर ही नहीं सकता । अभावको भावरूपसे माने बिना कोई अनर्थ, पाप कर ही नहीं सकता । सभी अनर्थ अभावको सत्ता देनेसे ही होते हैं । अतः नहीं’ को है’ मान लेना ही सम्पूर्ण अवगुणोंका, सम्पूर्ण दुःखोंका, सम्पूर्ण आसुरी-सम्पत्तिका मूल कारण है । असत्‌को सत्ता देना ही मूल अवगुण है, जिससे सम्पूर्ण अवगुण पैदा होते हैं । असत्‌को सत्ता हमने ही दी है, इसलिये इसको हमें ही मिटाना है । असत्‌की स्वतन्त्र सत्ता मिटनेपर सत्-तत्त्वको लाना नहीं पड़ेगा, प्रत्युत उसका अनुभव स्वतः-स्वाभाविक हो जायगा; क्योंकि वह तो पहलेसे ही विद्यमान है ।

नारायण !     नारायण !!     नारायण !!!

‒‘सत्संग मुक्ताहार’ पुस्तकसे


[*] भूमिरापोऽनलो वायुः खं मनो बुद्धिरेव च ।
      अहंकार   इतीयं   मे   भिन्ना प्रकृतिरष्टधा ॥
                                                                                          (गीता ७ । ४)

'पृथ्वी, जल, तेज, वायु आकाश‒ये पंचमहाभूत और मन, बुद्धि तथा अहंकार‒इस प्रकार यह आठ प्रकारके भेदोंवाली मेरी यह अपरा प्रकृति है ।’