।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि
फाल्गुन शुक्ल चतुर्दशी, वि.सं.२०७२, मंगलवार
व्रत-पूर्णिमा
कामना और आवश्यकता


भगवान्‌ने गीतामें कहा है‒ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः’ (गीता १५ । ७) । इस संसारमें जीव बना हुआ आत्मा मेरा ही सनातन अंश है ।’ शरीरमें तो माता और पिता दोनोंका अंश है, पर स्वयंमें परमात्मा और प्रकृति दोनोंका अंश नहीं है, प्रत्युत यह केवल परमात्माका ही शुद्ध अंश है‒ममैवांशः’ । तात्पर्य है कि जैसे परमात्मा हैं, ऐसे ही उनका अंश जीवात्मा है । गोस्वामीजी महाराज कहते हैं‒

ईस्वर  अंस  जीव अबिनासी ।
चेतन अमल सहज सुखरासी ॥
                             (मानस, उत्तर ११७ । १)

अतः जैसे परमात्मा चेतन, निर्दोष और सहज सुखकी राशि हैं, ऐसे ही जीव भी चेतन, निर्दोष और सहज सुखकी राशि है । परन्तु परमात्माका ऐसा अंश होते हुए भी जीव मायाके वशमें हो जाता है‒सो मायाबस भयउ गोसाईं’ और प्रकृतिमें स्थित मन, इन्द्रियोंको अपनी तरफ खींचने लगता है अर्थात् उनको अपना और अपने लिये मानने लगता है‒मनःषष्ठानीन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि कर्षति’ (गीता १५ । ७) । हम परमात्माके अंश हैं तथा परमात्मामें स्थित हैं और शरीर प्रकृतिका अंश है तथा प्रकृतिमें स्थित है । परमात्मामें स्थित होते हुए भी हम अपनेको शरीरमें स्थित मान लेते हैं‒यह कितनी बड़ी भूल है ! प्रकृतिका अंश तो प्रकृतिमें ही स्थित रहता है, पर हम परमात्माके अंश होते हुए भी परमात्मामें स्थित नहीं रहते प्रत्युत स्थूल-सूक्ष्म-कारण शरीरमें स्थित हो जाते हैं, जो कि प्रकृतिका कार्य है । इस प्रकार प्रकृतिको पकड़नेसे ही जीव परमात्माका अंश कहलाता है । अगर प्रकृतिको न पकड़े तो यह अंश नहीं है, प्रत्युत साक्षात् परमात्मा (ब्रह्म) ही है‒

परमात्मेति चाप्युक्तो देहेऽस्मिन्पुरुषः परः ॥
                                             (गीता १३ । २२)

अनादित्वान्निर्गुणत्वात् परमात्मायमव्ययः ।
                                             (गीता १३ । ३१)

प्रकृतिको पकड़नेसे जीवमें संसारकी भी इच्छा उत्पन्न हो गयी और परमात्माकी भी इच्छा उत्पन्न हो गयी । प्रकृतिके जड़-अंशकी प्रधानतासे संसारकी इच्छा होती है और परमात्माके चेतन-अंशकी प्रधानतासे परमात्माकी इच्छा होती है । संसारकी इच्छा कामना’ है और परमात्माकी इच्छा आवश्यकता’ है, जिसको मुमुक्षा, तत्त्व-जिज्ञासा और प्रेम-पिपासा भी कह सकते हैं । आवश्यकताकी तो पूर्ति होती है, पर कामनाकी पूर्ति कभी किसीकी हुई नहीं, होगी नहीं, हो सकती नहीं ।

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘सत्संग मुक्ताहार’ पुस्तकसे