।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि
चैत्र कृष्ण प्रतिपदा, वि.सं.२०७२, गुरुवार
वसन्तोत्सव (होली)
कामना और आवश्यकता


(गत ब्लॉगसे आगेका)

कामनाओंके त्यागसे आवश्यकताकी पूर्ति हो जाती है‒यह नियम है । कामनाका त्याग करनेमें हम स्वतन्त्र हैं । कामना किसीमें भी निरन्तर नहीं रहती, प्रत्युत उत्पन्न-नष्ट होती रहती है । परन्तु आवश्यकता निरन्तर रहती है । हमें सत्ता चाहिये तो नित्य सत्ता चाहिये, ज्ञान चाहिये तो अनन्त ज्ञान चाहिये, सुख चाहिये तो अनन्त सुख चाहिये‒यह सत्-चित्-आनन्दकी आवश्यकता हमारेमें निरन्तर रहती है । निरन्तर न रहनेवाली कामनाको तो हम पकड़ लेते हैं, पर निरन्तर रहनेवाली आवश्यकताकी तरफ हम ध्यान ही नहीं देते‒यह हमारी भूल है ।

अगर हम कामनाओंका त्याग कर दें तो परमात्माकी प्राप्ति हो जायगी अथवा परमात्माकी प्राप्ति कर लें तो कामनाओंका त्याग हो जायगा । इन दोनोंको ही गीताने योग’ कहा है‒

तं विद्यादुःखसंयोगवियोगं योगसञ्ज्ञितम् ।
                                                                                  (६ । २३)

जिसमें दुःखोंके संयोगका ही वियोग है, उसीको योग नामसे जानना चाहिये ।’

समत्वं योग उच्यते ।
                                                                  (२ । ४८)

                                ‘समत्व ही योग कहा जाता है ।’

तात्पर्य है कि जड़ताका त्याग करना भी योग है और चिन्मयतामें स्थित होना भी योग है । दुःखरूप संसारसे माना हुआ सम्बन्ध ही दुःखसंयोग’ है । दुःखोंका घर होनेसे संसार दुःखालय’ है‒दुःखालयमशाश्वतम्’ (गीता ८ । १५) । जैसे पुस्तकालयमें पुस्तकें मिलती हैं, वस्त्रालयमें वस्त्र मिलता है, भोजनालयमें भोजन मिलता है, ऐसें ही दुःखालयमें दुःख-ही-दुःख मिलता है । दुःखालयमें सुख ही नहीं मिलता, फिर आनन्द तो दूर रहा ! परन्तु परमात्मामें आनन्द-ही-आनन्द है‒यं लब्ध्वा चापरं लाभ मन्यते नाधिकं ततः’ (गीता ६ । २२) । ऐसे महान् आनन्दकी ही हमें आवश्यकता है, जिसकी पूर्तिके लिये ही हमें यह मनुष्यजन्म मिला है ।

मनुष्य अनन्तकालतक जन्मता-मरता रहे तो भी उसकी आवश्यकता मिटेगी नहीं और कामना टिकेगी नहीं । बाल्यावस्थामें खिलौनोंकी कामना होती है, फिर बड़े होनेपर रुपयोंकी कामना हो जाती है, फिर स्त्री-पुत्र, मान-बड़ाई आदिकी कामना हो जाती है । इस प्रकार कोई भी कामना टिकती नहीं, बदलती रहती है, पर आवश्यकता कभी मिटती नहीं, बदलती नहीं । उस आवश्यकताकी पूर्तिके लिये ही कर्मयोग, ज्ञानयोग, भक्तियोग ध्यानयोग आदि साधन हैं ।

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘सत्संग मुक्ताहार’ पुस्तकसे