।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि
चैत्र कृष्ण तृतीया, वि.सं.२०७२, शनिवार

कामना और आवश्यकता


(गत ब्लॉगसे आगेका)

साधक अधिक-से-अधिक अपने मनको परमात्मामें लगाता है । मन तो प्रकृतिका अंश होनेसे जड़ है और परमात्मा चेतन हैं । अतः मन परमात्मामें कैसे लगेगा ? जड़ तो जड़मे ही लगेगा, चेतनमें कैसे लगेगा ? वास्तवमें स्वयं (चेतन) ही परमात्मामें लगता है, मन नहीं लगता । जीवका स्वभाव है कि वह वहीं लगता है, जहाँ उसका मन लगता है । संसारमें मन लगानेसे वह संसारमें लग गया । जब वह परमात्मामें मन लगाता है, तब मन तो परमात्मामें नहीं लगता, पर स्वयं परमात्मामें लग जाता है । मनको संसारसे हटाकर परमात्मामें लगानेसे मन विलीन हो जाता है, खत्म हो जाता है । श्रीमद्भागवतमें भगवान् कहते हैं‒

विषयान् ध्यायतश्चित्तं विषयेषु विषज्जते ।
मामनुस्मरतश्चित्तं   मव्येव    प्रविलीयते ॥
                                                 (११ । १४ । २७)

विषयोंका चिन्तन करनेसे मन विषयोंमें फँस जाता है और मेरा स्मरण करनेसे मन मेरेमें विलीन हो जाता है अर्थात् मनकी सत्ता नहीं रहती ।’

कामनाकी पूर्तिमें तो भविष्य है, पर आवश्यकताकी पूर्तिमें भविष्य नहीं है । कारण कि सांसारिक पदार्थ सदा सब जगह विद्यमान नहीं हैं, पर परमात्मा सदा सब जगह विद्यमान हैं । अनुभवमें न आये तो भी आँखें मीचकर, अन्धे होकर यह मान लें कि परमात्मा सब जगह मौजूद हैं‒‘बहिरन्तश्च भूतानामचरं चरमेव च’ (गीता १३ । १५) वे परमात्मा सम्पूर्ण प्राणियोंके बाहर-भीतर परिपूर्ण हैं और चर-अचर प्राणियोंके रूपमें भी वे ही हैं ।’ इस प्रकार सब जगह, सब समय, सब वस्तुओंमें, सब व्यक्तियोंमें सब क्रियाओंमें सब अवस्थाओंमें, सब परिस्थितियोंमें परमात्माको देखते रहनेसे इच्छा नष्ट हो जायगी और आवश्यकताकी पूर्ति हो जायगी ।

शरीर और संसार एक ही जातिके हैं‒

छिति जल पावक गगन समीरा ।
पंच रचित अति अधम सरीरा ॥
                            (मानस, कि ११ । २)

शरीर हमारे साथ एक क्षण भी नहीं रहता । यह निरन्तर हमारा त्याग कर रहा है । परन्तु भगवान् निरन्तर हमारे हृदयमें विराजमान रहते हैं‒‘हृदि सर्वस्य विष्ठितम्’ (गीता १३ । १७) सर्वस्य चाहं हृदि सन्निविष्टः’ (गीता १५ । १५) ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देशेउर्जुन तिष्ठति’ (गीता १८ । ६१) । तात्पर्य है कि हमें जिसका त्याग करना है, उसका निरन्तर त्याग हो रहा है और जिसको प्राप्त करना है, वह निरन्तर प्राप्त हो रहा है । केवल भोग भोगना और संग्रह करना‒इन दो इच्छाओंका हमें त्याग करना है । ये दो इच्छाएँ ही परमात्मप्राप्तिमें खास बाधक हैं ।

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)

‒‘सत्संग मुक्ताहार’ पुस्तकसे