।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि
चैत्र कृष्ण षष्ठी, वि.सं.२०७२, मंगलवार
कामना और आवश्यकता


(गत ब्लॉगसे आगेका)

विचारके द्वारा यह अनुभव करें कि शरीर मेरा स्वरूप नहीं है । बचपनमें हमारा शरीर जैसा था, वैसा आज नहीं है और जैसा आज है, वैसा आगे नहीं रहेगा, पर हम स्वयं वही हैं, जो बचपनमें थे । तात्पर्य है कि शरीर तो बदल गया, पर हम नहीं बदले । अतः शरीर हमारा साथी नहीं है । हम निरन्तर रहते हैं, पर शरीर निरन्तर नहीं रहता, प्रत्युत निरन्तर मिटता रहता है । इस विवेकको महत्व देनेसे तत्त्वज्ञान हो जायगा अर्थात् हमारी आवश्यकताकी पूर्ति हो जायगी । इसका नाम ज्ञानयोग’ है ।

जब इच्छाओंको मिटानेमें अथवा आवश्यकताकी पूर्ति करनेमें अपनी शक्ति काम नहीं करती और साधकका यह विश्वास होता है कि केवल भगवान् ही अपने हैं और उनकी शक्तिसे ही मेरी आवश्यकताकी पूर्ति हो सकती है, तब वह व्याकुल होकर भगवान्‌को पुकारता है, प्रार्थना करता है । भगवान्‌को पुकारनेसे उसकी इच्छाएँ मिट जाती हैं । इसका नाम भक्तियोग’ है ।

संसारकी सत्ता मानकर उसको महत्ता देनेसे तथा उसके साथ सम्बन्ध जोड़नेसे ही जो अप्राप्त है, वह संसार प्राप्त दीखने लग गया और जो प्राप्त है, वह परमात्मतत्व अप्राप्त दीखने लग गया । इसी कारण संसारकी भी इच्छा उत्पन्न हो गयी और परमात्माकी भी इच्छा (आवश्यकता) उत्पन्न हो गयी । अतः साधकको कर्मयोग, ज्ञानयोग, भक्तियोग आदि किसी भी साधनसे संसारकी इच्छाको सर्वथा मिटाना है । संसारकी इच्छा सर्वथा मिटते ही संसारकी सत्ता, महत्ता तथा सम्बन्ध नहीं रहेगा और जिनके हम अंश हैं, उन नित्यप्राप्त परमात्माका अनुभव हो जायगा । फिर कुछ भी करना, जानना और पाना बाकी नहीं रहेगा अर्थात् मनुष्यजन्मकी पूर्णता हो जायगी ।

नारायण !     नारायण !!     नारायण !!!

‒‘सत्संग मुक्ताहार’ पुस्तकसे