।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि
चैत्र कृष्ण सप्तमी, वि.सं.२०७२, बुधवार
देनेके भावसे-कल्याण


श्रीमद्भगवद्गीतामें आया है‒

यतः   प्रवृत्तिर्भूतानां   येन   सर्वमिदं   ततम् ।
स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य सिद्धिं विन्दति मानवः ॥
                                                      (१८ । ४६)

जिस परमात्मासे सम्पूर्ण प्राणियोंकी प्रवृत्ति होती है और जिससे यह सम्पूर्ण संसार व्याप्त है, उस परमात्माका अपने कर्मके द्वारा पूजन करके मनुष्य सिद्धिको प्राप्त हो जाता है ।’

परमात्मासे ही सम्पूर्ण प्राणी उत्पन्न होते हैं और चेष्टा करते हैं । वे परमात्मा सब जगह परिपूर्ण हैं‒‘मया ततमिदं सर्व जगदव्यक्तमूर्तिना’ (गीता ९ । ४) । यह सब संसार मेरे अव्यक्त स्वरूपसे व्याप्त है ।’ अतः साधक जो भी कर्म करे, उसमें वह ऐसा भाव रखे कि मैं उस परमात्माकी ही पूजा कर रहा हूँ । किसीके साथ बर्ताव करे तो वह परमात्माकी ही पूजा है । किसीसे बातचीत करे तो वह परमात्माका ही पूजन है । इस प्रकार पूजन करनेसे मनुष्यका कल्याण हो जाता है‒यह कितना सुगम, सरल साधन है !

एक ही परमात्मा अनेक रूपोंसे प्रकट हुए हैं । वे एक ही अनेक रूपोंमें हैं और अनेक रूपोंमें वे एक ही हैं । उन्हीं परमात्माका पूजन करना है और कुछ नहीं करना है । भाईलोग अपने कर्मोंसे भगवान्‌का पूजन करें, बहनें अपने कर्मोंसे । भाईलोग व्यापार करें, नौकरी करें तो केवल भगवान्‌की पूजा समझकर करें । बहनें रसोई बनायें, बालकोंका पालन करें, घरका काम-धंधा करें तो केवल भगवान्‌की पूजा समझकर करें । भगवान् ही अनेक रूपोंमें हमारे सामने प्रकट हुए हैं । उस साक्षात् भगवान्‌की सेवासे बढ़कर और क्या अहोभाग्य होगा !

कुछ लेनेकी इच्छा रखकर सेवा करना भगवान्‌का पूजन नहीं है । जिस वस्तुको लेनेकी इच्छा होती है, उसकी सत्ता और महत्ता अपनेमें आ जाती है । अतः लेनेकी इच्छासे अपनेमें जड़ता आती है और देनेकी इच्छासे जड़ता मिटकर चेतनता आती है । जब मनुष्य साधक बनता है, तब वह लेनेके लिये नहीं बनता, प्रत्युत केवल देनेके लिये ही बनता है । जो कभी स्वप्रमें भी किसीसे कुछ लेना नहीं चाहता, केवल देना-हीं-देना चाहता है, वही साधक होता है । लेना और देना‒ये दोनों जिसमें हों, वह चिज्जड़ग्रन्थी’ है, जो जन्म-मरणका कारण है । जो अपना उद्धार चाहता है, चिज्जड़ग्रन्थीसे छूटना चाहता है, उसको लेना बन्द करके देना शुरू कर देना चाहिये । कहीं लेना भी पड़े तो वह भी देनेके लिये, दूसरेकी प्रसन्नताके लिये लेना है, अपने लिये नहीं ।

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)

‒‘सत्संग मुक्ताहार’ पुस्तकसे