।। श्रीहरिः ।।



आजकी शुभ तिथि
फाल्गुन कृष्ण दशमी, वि.सं.२०७२, शुक्रवार
एकादशी-व्रत कल है
साधकोंके प्रति-१५ (अ)
 
 
हमलोगोंने यह समझ रखा है कि जैसे हमलोगोंमें स्त्री-पुरुषका सम्बन्ध है, वैसे ही भगवान् श्रीकृष्ण और श्रीराधामें सम्बन्ध है; पर ऐसी बात नहीं है । श्रीकृष्ण और श्रीराधाका जो प्रेम है, वह एक विलक्षण तत्त्व है । इसमें भी श्रीराधा प्रेम-तत्त्व है । जिस तरह लोभी मनुष्यके सामने एक तो होता है धन और एक होता है धनकी तरफ खिंचाव; धन प्रिय लगता है, धनमें खिंचाव होता है तो इसको लोभ कहते है; इसी तरह एक तो है भगवान् और एक है भगवान्‌की तरफ खिंचाव । भगवान्‌में जो खिंचाव है, वह श्रीराधा-तत्त्व है और जिसमें वह खिंचाव होता है, वह श्रीकृष्ण-तत्त्व है । लोभमें तो केवल मनुष्यका ही धनमें खिंचाव होता है, धनका मनुष्यमें खिंचाव नहीं होता । परन्तु प्रेममें भगवान् श्रीकृष्णका श्रीराधाजीमें और श्रीराधाजीका भगवान् श्रीकृष्णमें परस्पर खिंचाव होता है ।

सामान्य स्त्री-पुरुषका जो खिंचाव होता है, उसमें और श्रीराधाकृष्णके खिंचावमें बड़ा भारी अन्तर है । स्त्री-पुरुषका खिंचाव तो अपने सुखके लिये होता है पर श्रीराधाजी और भगवान् श्रीकृष्णका खिंचाव एक-दूसरेको सुख देनेके लिये होता है, निज सुखके लिये नहीं । जहाँ निज सुखका भाव होता है, वहाँ राग होता है, कामना होती है, जो फँसानेवाली है ।

थोड़े अंशमें यह बात ऐसे समझ सकते हैं कि जैसे माँका बालकमें खिंचाव होता है और बालकका भी माँमें खिंचाव होता है । बालक तो अपने लिये ही माँको चाहता है; क्योंकि वह समझता ही नहीं कि माँका हित किसमें है । परन्तु माँ केवल अपने लिये ही बालकको नहीं चाहती, वह बालकका हित भी चाहती है । परन्तु ऐसा होनेपर भी माँकी ऐसी इच्छा रहती है कि बालक बड़ा हो जायेगा तो उसका ब्याह करूँगी, बहू आयेगी, सेवा करेगी, पोता होगा आदि । ऐसी उसके भीतर भविष्यके सुखकी आशा रहती है, चाहे वह इस बातको अभी स्पष्ट जाने या न जाने । परन्तु भगवान् और श्रीजीमें ऐसा भाव नहीं रहता कि भविष्यमें सुख होगा । उनको तो एक-दूसरेको सुखी देखनेमात्रसे सुख होता है । अब इस सुखको कैसे बतायें ? संसारमें ऐसा कोई सुख है ही नहीं । संसारमें हमारा जो आकर्षण होता है, वह आकर्षण शुद्ध नहीं है, पवित्र नहीं है; क्योंकि वह अपने सुखके लिये, अपने स्वार्थके लिये होता है ।

किसी भूखे आदमीका अन्नमें खिंचाव होता है तो इसमें दो बातें होती हैं‒एक तो वह भोजन करेगा तो भोजनके पदार्थोंका नाश करेगा और दूसरे, वह भोजनके अधीन होगा अर्थात् परतन्त्र होगा; कारण कि वह भोजनकी जरूरत मानेगा, और मनुष्य जिसकी जरूरत मानता है, उसकी परतन्त्रता हो ही जाती है । धन चाहते हैं तो धनकी परतन्त्रता, कुटुम्ब चाहते हैं तो कुटुम्बकी परतन्त्रता, शरीर रखना चाहते है तो शरीरकी परतन्त्रता हो जाती है । चाहनेवाला स्वयं तुच्छ हो जाता है और जिसको चाहता है, उसको बड़ा मान लेता है । संसारको बड़ा मानकर उसका तो नाश करता है और स्वयं उसका गुलाम बन जाता है और अपना पतन कर लेता है ।

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
 ‒‘साधकोंके प्रति’ पुस्तकसे