।। श्रीहरिः ।।



आजकी शुभ तिथि
फाल्गुन कृष्ण एकादशी, वि.सं.२०७२, शनिवार
विजया एकादशी-व्रत (सबका)
साधकोंके प्रति-१५ (अ)
 

 
 
(गत ब्लॉगसे आगेका)
भगवान् और श्रीजीके सम्बन्धमें उपर्युक्त दोनों ही बातें नहीं है । श्रीजी भगवान्‌की तरफ खिंचती है, जिससे भगवान्‌को आनन्द हो और भगवान् श्रीजीकी तरफ खिंचते हैं, जिससे श्रीजीको आनन्द हो । एक-दूसरेके प्रति ऐसा भाव होनेसे एक-एकका प्रेम बढ़ता है । जहाँ सुख लेनेकी इच्छा होती है, वहाँ वैसा प्रेम हो ही नहीं सकता । प्रेम उसे कहते हैं, जो बढ़ता ही रहे, जिसमें मिलनेकी उत्कण्ठा बढ़ती ही रहे । श्यामसुन्दर और श्रीजी सदा मिले ही रहते हैं पर ऐसा लगता है कि मानो कभी मिले ही नहीं, आज ही नया मिलन हुआ है‒अरबरात मिलिबे को निसिदिन, मिलेइ रहत मनु कबहुँ मिले ना ।’ भगवान् श्रीकृष्ण स्वयं ही दो रूपसे हो गये‒अपने आधे अंगसे श्रीजी बन गये और आधे अंगसे श्रीकृष्ण बन गये । इस प्रकार एक भगवान् ही दोनों स्वरूप बने हैं । वे पहले भी एक हैं और पीछे भी एक हैं; केवल प्रेमका आदान-प्रदान करनेके लिये और दूसरोंको प्रेमका आस्वादन करानेके लिये ही वे दो रूप बने हैं । दो रूप बनकर वे एक-दूसरेको सुख देनेके लिये एक-एककी तरफ खिंचते हैं । वह सुख कैसा है ? ‘प्रतिक्षणवर्धमानम्’ प्रतिक्षण बढ़ता ही रहता है । सांसारिक सुखका भोग होता है, वह कभी एकरूप नहीं रहता, घटता ही रहता है और घटते-घटते सर्वथा मिट जाता है । संसारका कोई भी सुख हो, कहीं भी हो, जिस किसीमें हमारी रुचि होती है, हम सुख लेते हैं तो पहले सुखकी इच्छा प्रबल होती है, फिर कम हो जाती है । उसका सेवन करते-करते फिर सुखकी इच्छा नहीं रहती । इतना ही नहीं, उस सुखसे ग्लानि हो जाती है । अतः संसारका कोई सुख ऐसा नहीं है, जो निरन्तर सुख दे सके । पर भगवान्‌का सुख ऐसा विलक्षण है कि वह निरन्तर बढ़ता ही रहता है, उसकी कभी तृप्ति नहीं होती ।
 संसारका सुख प्रतिक्षण नष्ट होता है पर श्रीजी और भगवान् श्रीकृष्णका प्रेम प्रतिक्षण बढ़ता रहता है । वह किस रीतिसे बढ़ता है ? इस रीतिसे बढ़ता है कि मिले रहते हुए भी मानो कभी मिले ही नहीं । जिसको अत्यन्त भूख होती है, उसको अन्न न मिलनेकी एक उत्कण्ठा रहती है कि अन्न मिल जाय । लोभी व्यक्तिको धन न मिले तो धन मिल जाये‒ऐसा एक खिंचाव होता है और धन मिलनेपर खिंचाव कम हो जाता है । परन्तु जब श्रीजी और भगवान् श्रीकृष्णका मिलन होता है तो मिलन होनेपर भी खिंचाव बढ़ता रहता है ।
सन्तोंकी वाणीमें आया है‒लाल प्रियामें भई न चिन्हारी लाल और प्रियामें अर्थात् भगवान् श्रीकृष्ण और श्रीजीमें अभीतक पहचान ही नहीं हुई कि तुम कौन हो ! जबतक धन नहीं मिलता, तबतक धनकी पहचान नहीं होती । परन्तु प्रेममें मिलन होनेपर भी पहचान नहीं होती और फिर मिले, फिर मिले‒यह उत्कण्ठा रहती है । इस कारण प्रेमका आनन्द ज्ञानके आनन्दसे भी विलक्षण है ।
    (शेष आगेके ब्लॉगमें)
 ‒‘साधकोंके प्रति’ पुस्तकसे